ख़िरशू से देवलगढ़ व धारी देवी की यात्रा

मेरी केदारनाथ यात्रा
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देवलगढ़ मंदिर व धारा देवी मंदिर

गौरा देवी टेम्पल , देवलगढ़ (उत्तराखंड )

01 मई 2018, बुधवार

खिरसू से देवलगढ़ मंदिर तक की दूरी लगभग 18 किलोमीटर है इतनी दूरी कि आप अपनी सवारी से लगभग तीस से चालिस मिनटों में पूरी कर सकते है। और लगभग इतनी ही दूरी श्रीनगर से भी है। जैसे ही हम ख़िरसू से निकले एक महिला ने हमसे लिफ्ट मांगी। उसको श्रीनगर जाना था अपनी बिटिया से मिलने। उसकी बेटी उधर ही पढ़ रही है। हमने बताया कि हम देवलगढ़ जा रहे है उसने कहा कोई बात नही आप देवलगढ़ वाले तिराहे पर उतार देना। उसने बताया कि उसका पति ख़िरसू GMVN गेस्ट हाउस में ही कार्य करता है। उसके तीन बच्चे है एक लड़की दिल्ली में जॉब करती है। बेटा देहरादून में पढ़ रहा है और एक बिटिया श्रीनगर में पढ़ रही है। जिससे वो आज मिलने जा रही है। कुछ ही मिनटों में हमने उसे तिराहे पर छोड़ दिया। और हम बांये तरफ मुड़ गए। यही रास्ता देवलगढ़ जाता है और आगे धारी देवी के पास कल्यासोड़ में मैन रोड पर मिल जाता है। रास्ते में एक गांव का नाम था मंडोली। मैं भी दिल्ली के एक गांव मंडोली से ही हूं। लेकिन यह हमारे गांव की तरफ प्रदुषित नही था। दिल्ली व एनसीआर आज बहुत प्रदुषित हो चुके है। लेकिन इधर ही हवा स्वच्छ थी लेकिन हम इधर रुके नही। फिर आगे देवलगढ़ ही जाकर रुके। हम लगभग सुबह के 9:40 पर इधर पहुँच गए थे।

देवलगढ़ मंदिरों का एक समूह है यहां पर कई मंदिर है मुख्य यहां पर राजराजेश्वरी मंदिर, गोरा देवी मंदिर, काल भैरव का मंदिर व गुफा है। गुफा जो नीचे सड़क के पास ही है। पुराने समय में उत्तराखंड 52 छोटे-छोटे गढ़ो(रियासतों) में बटा हुआ था। इसलिए इसे गढ़वाल भी कहा जाता है। राजा अजय पाल जी ने इन 52 गढ़ो में से 48 गढ़ों को जीतकर अपनी राजधानी चांदपुर गढ़ी से बदलकर देवलगढ़ में बनाई लेकिन फिर 6 वर्षों बाद उन्होंने अपनी नई राजधानी अलकनंदा नदी के किनारे श्रीनगर में बसाई बनाई। वैसे वह गर्मियों में देवलगढ़ रहते थे। और सर्दियों में श्रीनगर।

राज राजेश्वरी मंदिर मंदिर का निर्माण 15 वी शताब्दी में राजा अजय पाल के शासनकाल में कराया गया यह तीन मंजिला मंदिर है, तीसरी मंजिल पर ही मुख्य मंदिर है। यहां पर माता की स्वर्ण मूर्ति व कुछ अन्य प्रतिमाएं भी रखी गई है। यहां पर महाकाली यंत्र, मां कामख्या यंत्र, महालक्ष्मी यंत्र, बगलामुखी यंत्र व श्रीयंत्र भी रखे हुए है। और यहां पर इनकी विशेष पूजा होती है। यहां पर कई सालों से अखंड जोत भी जलती आ रही है। राजराजेश्वरी को शाही परिवार (राज परिवार) व ब्राह्मणों की कुलदेवी माना गया है। इनको तारा देवी, भैरवी, त्रिपुर सुंदरी, धूमावती व मातंगी के नाम से भी जाना जाता है। यह ऐश्वर्य व मोक्ष देने वाली देवी हैं।

गौरा देवी मंदिर भी एक प्राचीन मंदिर है। लेकिन यह तब बना जब यहां पर राजराजेश्वरी मंदिर की स्थापना हो चुकी थी। चूंकि राजराजेश्वरी राजपरिवार की कुलदेवी थी। इसलिए प्रजा के लिए भी गौरा देवी का मंदिर बनवाया गया। गोरा देवी जी को गिरिजा देवी(पार्वती) जी भी कहा जाता है। और यह आसपास के गांव की कुलदेवी है। इनकी बहुत मान्यता है। आज भी वैशाखी के दिन यहां पर बहुत बड़ा मेला लगता है।
राजा का चबूतरा नाम से एक जगह और इधर बनी है कहते है कि इस जगह पर राजा अजय पाल सिंह जी बैठते थे और न्याय करते थे। इसी पर पाली भाषा में कुछ लिखा भी गया है कहते है कि यह उनके न्याय की की कहानियां हैं। मंदिर मुख्य मार्ग से थोड़ा सा ऊपर बना है मंदिर तक जाने के लिए भी दो रास्ते हैं। दोनों ही एक दूसरे के विपरीत बने हैं। मैंने आगे वाले रास्ते से जाना तय किया क्योंकि यह थोड़ा नजदीक था। हम तकरीबन थोड़ा ही ऊपर पहुंचे थे। कि एक पुराना मंदिर हमें देखने को मिला यह गोरा देवी का मंदिर था। यह मंदिर भी आदि शंकराचार्य द्वारा जी के द्वारा ही जीर्णोद्धार किया गया है। यह लगभग केदारनाथ जैसी शैली में ही बना है। मैं इस शैली का नाम तो नहीं जानता कि यह कौन सी शैली में बना है लेकिन लगभग देखने में वही पत्थर वही, चिनाई उसी मुद्रा में खड़ा हुआ है जैसा केदारनाथ। गोरा देवी मंदिर के बाएं तरफ एक छोटा सा मंदिर है शायद वो किसी द्वारपाल का मंदिर होगा और एक उससे थोड़ा सा बड़ा मंदिर थोड़ा सा नीचे दाएं तरफ है इसमें गरुड़ पर बैठे भगवान विष्णु ही हैं। इन मंदिरों को देखकर हम थोड़ा ऊपर चल पड़े थोड़ा सा ऊपर चलने के चलते ही बाएं हाथ पर एक चबूतरा बना हुआ है। उसी के पास एक कुआं है, कुआं थोड़ा ऊपर है। और अब टूट-फूट भी चुका है। इसलिए हम उधर नहीं गए। हम केवल राजा के चबूतरे तक ही गये। यहां से थोड़ा आगे चलकर राजराजेश्वरी मंदिर आ जाता है। थोड़ी सीढ़िया चढ़नी होती है। यहां हमारे अलावा कोई नहीं दिख रहा था। इधर बहुत शांति थी। हवा का शोर गीत गाता सा प्रतीत हो रहा था। पेड़ो के पत्तों की आवाज जो एक दूसरे से टकराने पर बन रही थी। वह भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। थोड़ा आगे चले थे कि एक घर दिखा। उसमें आवाज लगा कर हमने पूछा कि मंदिर कहां पर है? तो उधर से एक पंडित जी आए। मुझे नाम तो पता नही पर शायद नौटियाल जी थे । यह यहां के मुख्य पुजारी है। यह हमें मंदिर के ऊपर के कक्ष में लेकर गए। उन्होंने हमें श्री यंत्र व अन्य मूर्तिया दिखलायी जो मंदिर में बड़े प्राचीन काल से रखी है।उन्होंने बताया कि राजराजेश्वरी माता, राजाओं की कुलदेवी है। और राजा इन्हीं की पूजा करते थे और इनसे ही युद्ध मे विजय और धन व अच्छा राजपाट प्राप्त करने के लिए वर मांगते थे।

मैंने फ़ोटो खींचना चाहा तो पुजारी जी ने मना कर दिया। हम कुछ देर मंदिर में बैठे रहे फिर नीचे उतर आए। यह मंदिर अन्य मंदिरों के तरह नहीं हैं। ऐसा लगता ही नहीं कि हम मंदिर में है। ऐसा लगता है कि जैसे हम किसी पहाड़ी घर पर है। मतलब मंदिर की बनावट घर जैसी है। यहां आकर मुझे बड़ा अच्छा लगा ऐसा लगा कि कि मैं वाकई में किसी शक्ति के पास हूं । यहां का वातावरण बहुत स्वच्छ व शांतमय था। पुजारी जी भी बड़े सज्जन व सीधे सादे लगे। हमे बड़े आराम से शांति से दर्शन हुए। पुजारी जी का व्यवहार और इस मंदिर का इतिहास जानकर मन खुश हो गया।
तभी मेरा बेटा देवांग जमीन पर गिर गया चोट तो नही लगी पर मेरा छोटा कैमरा टूट गया। जिस कारण देवांग परेशान हो गया। क्योंकि वो कैमरा मैंने उसे ही दे दिया था। और वह अब पूरे ट्रिप पर फ़ोटो नही खींच पाएगा यह सोच कर वह ज्यादा उपसेट था। कुछ ही देर में वह और बच्चों की तरह सब भूल गया और सही भी हो गया। कुछ समय बाद हम नीचे उतर आये और कार में बैठ कर आगे धारा देवी की तरफ चल पड़े।
नीचे सड़क से मंदिर का रास्ता।
देवांग
गौरा देवी मंदिर प्रवेश द्वार
गौरादेवी मंदिर
मंदिर के अंदर
एक अन्य मंदिर
राजराजेश्वरी मंदिर को जाता रास्ता।
राजा का चबूतरा और कुंआ भी दिखता हुआ
राजराजेश्वरी मंदिर
धारा देवी मंदिर (धारी देवी)
हम देवलगढ़ से कल्यासोड़ मात्र आधे घंटे में ही पहुँच गए दूरी लगभग 14 km तय की गई। पिछली बार जब में बद्रीनाथ जी व चोपता गया था। इसी रास्ते से होते हुए गया था लेकिन तब भी धारा देवी के दर्शन नही किये थे। इसलिए अबकी बार दर्शन जरूर करूँगा यह पहले से ही तय कर चुका था। मैंने गाड़ी को नीचे नदी के किनारे ही लगा दिया। और पतले से लोहे के पुल से होते हुए मैन मंदिर में प्रवेश किया। ज्यादातर लोग जमीन पर बैठे हुए थे। और तीन चार पंडे- पुजारी बारी बारी से नीचे बैठे लोगों को बुला रहे थे और बड़े आराम से पूजा करवा रहे थे। हमारा भी नंबर आ ही गया और हमने भी माँ धारा देवी जी की पूजा बड़े आदर से की। इन देवी को उत्तराखंड की रक्षा करने वाली देवी माना गया है। यह हिमालय पुत्री पार्वती माता ही है। कुछ लोगो का मानना है। कि जब डैम बनने के कारण इनको इधर से हटाया गया तो यह गुस्सा हो उठी थी। जिस कारण केदारनाथ में प्रलय आ गयी थी। अब हम मंदिर से बाहर आ गए और अलकनंदा नदी के तट पर भी गए। कुछ देर बाद इधर बिताने के बाद हम आगे सफर पर चल पड़े।

आज हमें फाटा हेलीपैड के आस पास रुकना था क्योंकि हमें कल सुबहें 7 बजे फाटा से हेलिकॉप्टर द्वारा केदारनाथ पहुचना था। कल्यासोड़ से फाटा लगभग 80km की दूरी पर है और यह दूरी तय करने में हमे लगभग 3 से साढ़े तीन घंटे लग ही जायंगे। आगे हम रुद्रप्रयाग रुके इधर एक होटल पर खाना भी खाया और रुद्रप्रयाग से केदारनाथ वाले रास्ते जो की मंदाकनी नदी के साथ साथ चलता है मुड़ गए। रुद्रप्रयाग से एक रास्ता अलकनंदा नदी के साथ साथ बद्रीनाथ जी को चला जाता है। अगस्तमुनि, कुंड व गुप्तकाशी होते हुए हम शाम के लगभग 4 बजे फाटा पहुँच गए। हेलीपैड से कल की पूरी जानकारी ले ली और पास मेंं ही होटल देेेख लिया रुकने के लिए। यह एक नया होटल था फ़िलहाल होटल का नाम भूल गया हूँ, लकिन नंबर मेरे पास है। (9582970010 प्रमोद फाटा ). लकिन हम इसके पहले ग्राहक थे। होटल थोड़ा महंगा मिला 2000 प्रति दिन के हिसाब से क्योंकि चार धाम यात्रा शुरू हो चुकी है और इस दौरान होटल व अन्य सेवाएं महंगी मिलती है। । और हम रात को इधर ही रुक गए…..

रास्ते में कही किसी जगह से दिखता चोखम्बा पर्वत
फाटा
फाटा होटल
फाटा

यात्रा अभी जारी है. …..

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ज्वाल्पा देवी से ख़िरशू

मेरी केदारनाथ यात्रा
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ख़िरसू, पौड़ी गढ़वाल
30 अप्रैल 2018, मंगलवार
जब हम ज्वाल्पा देवी से चले तब दोपहर के लगभग 3:30 बज रहे थे। वैसे तो हमें आज के दिन कलडूँग में गो हिमालय के होमस्टे पर रुकना था। लेकिन मेरे मित्र बीनू कुकरेती जी से जब मेरी बात हुई तो उन्होंने कहा जब इधर घूमने आ ही रहे हो तो फिर ख़िरसू घूम कर आना। उन्होंने बताया कि ख़िरसू एक बहुत सुंदर जगह है। और उधर से हिमालय के दर्शन भी बहुत बढ़िया से होते है। चौखम्भा पर्वत भी दिखता है। इसलिए हमने ख़िरसू में ही रुकने का प्लान कर लिया।

ज्वालपा देवी से ख़िरसू की दूरी लगभग 41 किलोमीटर है। जो हमने लगभग डेढ़ घंटे में पूरी कर ली थी। पूरा रास्ता पहाड़ी घुमावदार ही है। रास्ते मे कई गांव आते है उन्ही में एक स्थान आता है बुवाखाल। बुवाखाल से एक रास्ता बांए तरफ पौड़ी की तरफ चला जाता है। और फिर श्रीनगर के लिए। और एक रास्ता सीधा आगे ख़िरसू के लिए चला जाता है। इसी रास्ते पर आगे चोबट्टा आता है, बाद में ख़िरसू। हम ख़िरसू वाले रास्ते पर चल पड़े। कुछ समय बाद हमे सड़क के दोनों तरफ बड़े बड़े पेड दिखने शुरू हो गए। यह चोबट्टा था और यह बेहद सुंदर जगह थी। चोबट्टा से थोड़ा आगे ही ख़िरसू है शायद दो या तीन किलोमीटर। हमे ख़िरसू में प्रवेश करते ही काफी भीड़भाड़ दिखाई दी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई स्थानीय मेला चल रहा था। क्योंकि ज्यादातर लोग स्थानीय ही लग रहे थे, जब हम गढ़वाल मंडल के गेस्ट हाउस (gmvn) पहुंचे। तब हमें पूरी तरह पता चल चुका था कि यह एक वार्षिक मेला है जो अभी अभी समाप्त हुआ है। इसलिए भीड़ ज्यादा दिख रही है। GMVN के गेस्ट हाउस पहुंचते ही हमने एक रूम (hut) ले लिया। मैंने यह रूम इसलिए लिया क्योंकि इस रूम की खिड़की से पर्दा हटाते ही अंदर से ही हिमालय दर्शन हो रहे थे। इस रूम के एक रात के ठहरने का किराया मुझे 1650 रुपये चुकाना पड़ा। जबकि यहां रुकने के और भी सस्ते विकल्प थे। अगर मुझे ख़िरसू gmvn गेस्ट हाउस की तारीफ करनी हो तो मैं इन शब्दों में करूँगा की यह काफी शांत व मनमोहक जगह पर बना है। यह खुली जगह पर बना है। एक तरफ जंगल दिखता है, तो दूसरी तरफ हिमालय। कुछ दिन एकांत में व्यतीत करने हो तो मोबाइल को बंद करके इधर रहा जा सकता है।

खिर्सू

गेस्ट हाउस के सामने एक सूखा पेड़ था। उस पर कुछ लंगूर बैठे हुए थे। जो उछलकूद कर रहे थे। गेस्ट हाउस में ही तरह तरह के पौधे लगे हुए थे। जिनपर फल व फूल भी लगे हुए थे। जो हर किसी को अपनी और आकर्षित कर रहे थे। यहां से चौखम्बा पर्वत समेत अन्य कुछ पहाड़ियों के भी दर्शन हो रहे थे। गेस्ट हाउस में हमारे अलावा दो तीन फैमिली और रुकी हुई थी। एक परिवार जो दिल्ली से ही आया हुआ था। जब उनसे बात हुई तो उन्होंने बताया कि उन्हें आये इधर अभी दो दिन ही हुए है, वह हर साल इधर ही आते है। और तीन- चार दिन रहते है। उन्होंने इसका कारण यहाँ की हवा, पानी व वातावरण को बताया जो उन्हें इधर हर साल बुलाती है। एक परिवार से और मिला वह हमारे शाहदरा से ही थे और मेरे एक अंकल के जानकार भी निकले और साथ मे मेरे घुमक्कड़ मित्र व गो हिमालय होम स्टे के मालिक सूर्य प्रकाश डोभाल जी के मामा भी निकले। उन्होंने बताया कि वह ख़िरसू के ही है लेकिन कई सालों बाद यहां आए है। इन सभी लोगो से बात करके अच्छा लगा।

वैसे मेरी नज़र में ख़िरसू कोई हिल स्टेशन नही है, बल्कि एक गांव ही है। यह मसूरी और नैनीताल जैसा नही है। इसका यह कारण है कि जब उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश से अलग हुआ तब ख़िरसू व ऐसे कुछ गांव पर्यटन मानचित्र पर उभर कर आये। उत्तराखंड सरकार ने कुछ ऐसी जगहों को प्रमोट किया। उन्ही जगहों में ख़िरसू भी है। अभी यहाँ gmvn के गेस्ट हाउस समेत एक दो होटल ही मात्र है, बाकी होमस्टे भी हो सकते है। घूमने के लिए एक मनोरंजन पार्क बना है। और घंडियाल देवता का मंदिर है, जो एक बड़े से मैदान के पास बना है। यह यहां के स्थानीय देवता है और पूजनीय भी। सालभर यहाँ मौसम ठंडा और अच्छा ही रहता है। गर्मियों में यहां बहुत भीड़ होती है। यह समुंदर की सतह से लगभग 1750 मीटर की ऊंचाई पर बसा है। इसके आस पास घने जंगल है। यहां चीड़, देवदार, बांज आदि के दरख़्त(पेड़) पाए जाते है। इसलिए यहाँ की हवा में स्वच्छता है। इधर कई तरह-तरह के पक्षियों को देखा जा सकता है। कुल मिलाकर यह एक सुंदर जगह है जहां पर आप शांति से कुछ पल बिता सकते हैं।
हम अपने रूम में पहुँचे ही थे कि जोर जोर से बारिश होने लगी। अब ठंडक पहले से बढ़ गयी थी। लेकिन बारिश थोड़ी देर बाद ही रुक गयी। जैसा अकसर पहाड़ो की बारिश होती था थोड़ा पड़ी और रुक गयी। फिर हमने गरमा गरम चाय पी और बाहर ख़िरसू घूमने के लिए निकल गए। हम एक बड़े से मैदान में पहुँचे। कुछ लोग अपनी दुकानें समटने में लगे थे। क्योंकि मेला आज थोड़ी देर पहले ही समाप्त हुआ था। सामने ही एक मंदिर दिख रहा था। वही घंडियाल देवता का मंदिर है, एक बच्चे ने मेरे पूछने पर बताया। मंदिर का बाहरी गेट खुला था। लेकिन अंदर वाला चेनल (गेट) बंद था। चलो कोई बात नही, हमने मंदिर देखना था और देवता को प्रणाम करना था। वो हमने कर ही लिए थे। अब मेरा बेटे देवांग को भूख लगने लगी थी इसलिए हम वापिस गेस्ट हाउस में लौट आये। क्योंकि ख़िरसू में खाने के लिए हमे कोई रेस्टोरेंट नही दिखा। गेस्ट हाउस पहुचे तो हल्का अंधेरा होने लगा था। सामने स्वेत हिम पर्वतों पर ढ़लते सूरज की लालिमा पड़ रही थी। तभी गेस्ट हाउस की लाइट चली गयी थोड़ी देर बाद एक कर्मचारी आये उन्होंने एक माचिस और एक मोमबत्ती (कैंडल) हमे देते हुए कहा कि जबतक जनरेटर नही चलता आप कैंडल जला लीजिएगा। उन्होंने खाने का भी आर्डर ले लिया था। वैसे आधे घंटे में जनरेटर भी चल गया और खाना भी आ गया। बारिश फिर से चालू हो गयी थी। और थोड़ी देर में बंद भी। क्योंकि पहाड़ों पर बारिश ऐसी ही होती है। खाना खाने के बाद मैं टहलने के लिए बाहर आया लेकिन सर्द हवाओं की वजह से वापिस कमरे में जाकर रजाई में घुस गया।
घंडियाल देवता मंदिर
मैं सचिन मंदिर पर (घंडियाल देवता के )
अगले दिन
01 मई 2018, बुधवार
सुबह उठ गया समय देखा तो 5:15 बज रहे थे। जल्द ही बिस्तर से निकला और कैमरा उठा कर बाहर आ गया। बाहर ठंडी हवा चल रही थी। हल्का अंधेरा था। चांद गोल और बहुत नज़दीक दिख रहा था। दो तीन चिड़ियो की आवाज तो आ रही थी पर वह दिख नही रही थी। चाय पीना का मन हुआ लेकिन 6:30 से पहले वो भी नही मिलेगी। थोड़ी देर घूमने के बाद वापिस रूम में लौट आया और खिड़की के पास ही बैठ गया। लगभग आधा घंटे बाद फिर बाहर आया। अभी दूर बर्फ के पहाड़ काले दिख रहे थे। लेकिन जब सूर्य अपनी रोशनी से इन्हें जगमग करेगा तो पल पल में बहुत से रंग दिखेंगे। आसमान में बादल थे इसलिए हो सकता है कि वो फ़ोटो ना ले पाऊ जो मुझे लेने थे। अब गेस्ट हाउस में बाहर थोड़ी हलचल बढ़ी और एक कपल जो कि कोलकाता से आये थे। उनसे बात हुई उन्होंने बताया कि वो आज चोपता तुंगनाथ जायंगे। वैसे मैंने देखा वेस्ट बंगाल के लोग काफी घूमते है। अब उजाला हो चुका था। और थोड़ा कोहरा भी था। दूर चौखम्बा पर्वत व अन्य पर्वतों पर बदल छाए हुए थे। वो साफ नही दिख रहे थे। चाय रूम में पहुँच चुकी थी इसलिए मैं भी रूम की तरफ बढ़ चला। और बाद में हम लोग गेस्ट हाउस से नाश्ता करने के बाद सुबह के लगभग 9 बजे आगे के सफर पर निकल गए…….
बर्फ के पर्वत अभी श्याम रूप लिए हुए है।
अब थोड़ा प्रकाश आया सूर्य का।
आड़ू
यात्रा अभी जारी है. …..

दिल्ली से ज्वाल्पा देवी मंदिर

मेरी केदारनाथ यात्रा
ज्वाल्पा देवी मंदिर, पौड़ी गढ़वाल

ज्वाल्पा देवी मंदिर , पौड़ी गढ़वाल
केदारनाथ नाम सुनते ही मन मस्तिष्क में हिमालय की हिमाच्छादित पर्वतीय चोटियों के बीच एक मंदिर की तस्वीर दिखलाई पड़ती है। केदारनाथ धाम के बारे में यह कहा जाता है कि जो व्यक्ति केदारनाथ जाता है उसपर तो शिव की कृपा होती ही है बल्कि जो व्यक्ति केदारनाथ धाम जाने की सोचता भी वह भी शिव की कृपा पाता है। इसलिये मेरा भी बहुत सालों से मन था केदारनाथ बाबा के दर्शन कर आऊं लेकिन हर बार प्रोग्राम किसी ना किसी कारण रदद हो ही जाता था। पिछले वर्ष 2017 में मैने तृतीय केदार तुंगनाथ महादेव की यात्रा की थी। वापिसी में केदारनाथ धाम जाने की सोची लेकिन उस यात्रा के सहयात्री ललित को एक अर्जेंट काम आ पड़ा और हम कुंड नाम की जगह से ही वापिस लौट आये थे। इस वर्ष 2018 में भी कुछ घुमक्कड़ (घुमक्कड़ी दिल से) दोस्तो का केदारनाथ यात्रा पर जाने का प्रोग्राम बना। अपना मन भी जाने को मचल पड़ा लेकिन उससे पहले ही मेरा छोटा सा एक्सीडेंट हो गया और मेरे बांये पैर की सबसे छोटी अंगुली मे क्रेक आ गया और चालीस दिन के लिए पैर पर प्लास्टर बंध गया। फिर भी मैं, दोस्तो के बनाये एक वाट्सएप्प ग्रुप केदारनाथ यात्रा से जुड़ा रहा और ग्रुप में बातों को पढ़ता रहा और जानकारी भी लेता रहा। और जैसे जैसे समय बितता गया केदारनाथ जाने की लालसा और प्रबल होती गयी। लेकिन अभी भी मेरे पैर में दर्द था। सभी दोस्त 27 अप्रैल को तय यात्रा पर निकल गए। इसी बीच मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों ना यह यात्रा हेलीकॉप्टर द्वारा की जाए। जिससे मुझे चलना भी नही पड़ेगा। बाकी गाड़ी चलाने में मुझे कोई दिक्कत नही आने वाली थी। क्योंकि मेरी कार ऑटोमैटिक है, उसमें बांये पैर को पूरा आराम मिलता है। मैंने हेलीकॉप्टर के टिकेट के लिए गूगल पर बहुत सर्च किया और पाया कि अभी हेलीकॉप्टर बुकिंग खुली नही है। इसलिए एक एजेंट को बोल दिया कि 2 मई के टिकेट हो तो तीन टिकट बुक कर देना और अगर इस तारीख की नही मिले तो फिर रहने देना। 28 अप्रैल की रात को तकरीबन 8 बजे मैं अपने ऑफिस में बैठा था। तभी उस एजेन्ट का फ़ोन आया कि पवन हंस जो कि सरकारी हेलीकॉप्टर कंपनी है। उसकी साइट अभी अभी खुली है और 2 मई की फाटा से केदारनाथ की आने-जाने टिकट Rs6700 में मिल रही है। मैंने उसको तुरंत ऑनलाइन पेमेंट कर दी और कुछ ही देर बाद उसका फ़ोन आया कि आपकी टिकट कंफर्म हो गयी है और उसने टिकट मुझे मेरी मेल पर भेज दी है। अब मैने घर पर फ़ोन कर के यह सारी बात बता दी कि हमे 30 अप्रैल को सुबह केदारनाथ यात्रा पर निकल पड़ना है और कल तक सभी सामान पैक कर लेना है। मैंने चारधाम यात्रा का ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन पहले ही कर लिया था। जिसकी 50 रुपए प्रति व्यक्ति फीस भी लगी थी।
30 अप्रैल 2018 सोमवार
इस यात्रा में मेरे अलावा मेरी श्रीमती व मेरा बेटा थे। सुबह हमने 6 बजे दिल्ली स्तिथ घर से यात्रा शुरू कर दी। जल्द ही हम गाजियाबाद हिंडन के पुल को पार कर राजनगर एक्सटेंशन से होते हुए मुरादनगर गंग नहर पहुंचे। अभी फिलहाल हमें मुरादनगर में जाम नहीं मिला मुरादनगर में अक्सर जाम मिल जाता है। मैंने कल ही अपने मामा के लड़के से मुरादनगर गंगनहर वाला रास्ते का पता लगा लिया था और यह जान लिया कि यह रास्ता फिलहाल खतौली तक बेहतरीन बना है। यह रास्ता आगे सीधा मंगलौर तक चला जाता है लेकिन अभी वो ठीक नही है। हम गंगनहर के किनारे वाले वाले रोड पर सीधे चलते रहे। अब यह रोड काफी चौड़ा हो चुका है और आराम से गाड़ी सरपट दौड़ती चलती है। जल्द ही जल्द ही हम खतौली पहुंच गए। खतौली से मैं जानसठ- मीरापुर- कोटद्वार वाला रोड पर चल दिया। यह एक सिंगल रोड है। लेकिन ज्यादा ट्रैफिक नहीं है इस रोड पर हम आराम से इस पर चलते हुए लगभग 10:30 बजे के करीब हम कोटद्वार पहुंचे। कोटद्वार मैं पहले भी आया हूं, यहां पर हनुमान जी का एक मंदिर है जिसको सिद्धबली मंदिर कहा जाता है। लेकिन अब की बार जो की मैं परिवार के साथ आया था और हम सभी हनुमान जी के दर्शन करना चाहते थे। इसलिए मैंने गाड़ी को पार्किंग में खड़ी की और सिद्धबली मंदिर की तरफ चल पड़े। सिद्धबली मंदिर खोह नदी के किनारे एक टीले पर बना है। जब पिछली बार मैं यहां पर आया था। तो कपाट बंद हो रहे थे और बड़ी मुश्किल से मुझे बाबा के दर्शन हो पाए लेकिन आज जब मैं पहुंचा तो मंदिर के कपाट खुले हुए थे और सभी भक्त हनुमान जी के दर्शन कर रहे थे। हमने भी दर्शनों का लाभ लिया और कुछ वक्त मंदिर में बिता कर वापिस नीचे पार्किंग की तरफ चल पड़े। फिर हम गाड़ी में बैठकर आगे के सफर के लिए निकल पड़े।
मंदिर के लिए कुछ सीढ़िया चढ़नी पड़ती है।
मुख्य मंदिर व हनुमान जी ( सिद्धबली बाबा )
यहां से आगे हम दुगड्डा नाम जी जगह पहुँचे। यहाँ से एक रास्ता नीलकंठ महादेव के लिए भी चला जाता है। दुग्गड़ा से आगे चलकर एक मोड़ आता है। यहाँ से दो रास्ते अलग हो जाते है। एक रास्ता लैंसडौन के लिए चला जाता है जो कि 22 किलोमीटर दूरी पर है। और दूसरा रास्ता गुमखाल के लिए जो कि 14 किलोमीटर दूरी पर है। वैसे लैंसडाउन वाला रास्ता भी वापिस गुमखाल में ही मिल जाता है। लेकिन यह तक़रीबन 18 km ज्यादा पड़ता है। इसलिए हम गुमखाल की तरफ जाते रास्ते पर मुड़ गए। इसको मेरठ- पौड़ी रोड भी कहते हैं। क्योंकि यह सीधा रास्ता पौड़ी की तरफ चला जाता है और हमें भी पौड़ी के रास्ते से ही जाना था। थोड़ी दूर चलने के बाद लंबे लंबे चीड़ के वृक्ष सड़क के दोनों तरफ दिखाई दे रहे थे। ऐसा लग रहा था, जैसे एक जन्नत में आ गए हो। चारों तरफ हरियाली फैली थी और रास्ते पर एक या दो गाड़ी ही दिख रही थी। वातावरण में शुद्ध हवा थी। आँखों को यह सब अच्छा लग रहा था। ज्यादातर ऐसे मेरे साथ होता है जब भी मैं ऐसे स्थान को देखता हूँ तो मैं गाड़ी थोड़ी देर रोक ही लेता हूँ। इसलिए आज भी रुक गए, कुछ समय हमने यहां बिताया और हम आगे की तरफ निकल गए। गुमखाल से थोड़ा सा ही आगे चलने पर एक तिराहा आता है। यहां से एक रास्ता बांये तरफ जाते हुए द्वारीखाल पहुंचता है और फिर यह रास्ता आगे नीलकंठ होते हुए ऋषिकेश निकल जाता है। इसी रोड पर मेरे दोस्त बीनू का गांव बरसूडी भी है। बहुत सुंदर गांव है आने वाले सितम्बर को इस गांव में आना होगा हम कुछ दोस्तों का। दूसरा रास्ता पौड़ी की तरफ चला जाता है इसी रास्ते पर सतपुली नामक जगह पड़ती है जहाँ से एक रास्ता देवप्रयाग चला जाता है। और एक पौड़ी के लिए, हम उसी पौड़ी रोड पर ही आगे चल रहे थे। सतपुली से तकरीबन 20 किलोमीटर चलने पर उत्तरी नयार नदी के किनारे ज्वाल्पा देवी का प्राचीन मंदिर है। हमने गाड़ी के ब्रेक मंदिर के बाहर ही लगाए और सीधा मंदिर की तरफ चल पड़े। मंदिर सड़क से कुछ दूरी पर नीचे नदी के किनारे पर बना हुआ है। इस मंदिर से जुड़ी एक कथा है।
कथा के अनुसार यहां पर पुलोमा नामक असुर की पुत्री शची, देवताओ के राजा इंद्र को पति के रूप में पाना चाहती थी। इसलिए शची ने इस जगह पर माँ पार्वती की आराधना की थी। तब पार्वती जी ने यहां पर ज्वाला रूप में शची को दर्शन दिए और उनको मन वांछित वर भी दिया। जिसके कारण उसने इंद्र को अपने पति के रूप में पाया। मां पार्वती ने यहां पर ज्वाला के रूप में शची को दर्शन दिए थे इसलिए आज भी माँ पार्वती एक अखंड ज्योति रूप में इस मंदिर में विराजमान है। और हर भक्त की मनोकामना पूर्ण करती है।

ये रास्ते
ये रास्ते
ज्वाल्पा देवी मंदिर द्वार सड़क से
हम थोड़ी देर बाद मंदिर में पहुँच गए। मंदिर नयार नदी के किनारे ही स्तिथ है। रुकने के लिए एक धर्मशाला भी बनी थी। हमने माता के दर्शन किये। पुजारी जी ने एक कथा और बतायी इस मंदिर से जुड़ी। उस कथा के अनुसार इस जगह कुछ व्यापारी रात को रुके। वह नीचे शहर से कुछ सामान लाये थे। अगली सुबह जब सभी व्यापारी चल पड़े तो एक व्यापारी की गठरी उठ नही पायी जब गठरी खोली गई तो उसमें माता की मूर्ति निकली। वही मूर्ति आज मंदिर में है।
हम दर्शन करने के पश्चात नयार नदी के किनारे पहुँचे। फिर हम नदी के किनारे एक बड़े से पत्थर पर बैठ गए। नदी की कल कल बहती धारा बहुत सुंदर लग रही थी। और जल के प्रवाह की आवाज भी कानो में पड़ रही थी। आस पास कुछ लोग और भी थे। जो अपनी सेल्फी लेने में मस्त थे। पास में ही एक लोहे का पुल बना था। जो शायद नयार के पार किसी गांव के लिए बनाया गया होगा। बीच बीच मे मंदिर की घंटियों की बजने की आवाज़ आ जाती थी। कुछ समय यहाँ बिताने के बाद हम ऊपर सड़क पर पहुँच गए और आगे के सफर पर निकल पड़े।
ज्वाल्पा देवी मंदिर
यात्रा अभी जारी है. …..

रेणुका जी हिमाचल प्रदेश की एक खूबसूरत झील

गर्मियांगर्मियां आ चुकी है। हर कोई बाहर पहाड़ों की तरफ घुमने के लिए निकल पडा है या फिर घुमने का कार्यक्रम बना रहा है। आज कल सभी लोग छुट्टी होते ही, शीतलता पाने के लिए पहाड़ों की तरफ चल पडते है जिस कारण मसूरी, शिमला व नैनीताल जैसे पहाडी शहरो में पर्यटकों की भीड के कारण जाम की स्थिति बन जाती है। ऐसे में हर कोई चाहता है की ऐसी जगह जाया जाए। जहां प्रकृति की सुंदरता के साथ साथ शीतलता भी हो और भीड भाड भी ना हो। तो आज मैं आपको एक ऐसी जगह लेकर चलता हूं। जो सुंदर है, पौराणिक महत्व लिए है, वहां एक सुंदर झील भी है, जहां आप बोटिंग भी कर सकते है और साथ में बच्चो के लिए एक छोटा सा चिड़ियाघर भी है और यह दिल्ली के बेहद नज़दीक भी है। आप सोच रहे होंगे की ऐसी कौन सी जगह है? तो चलो मैं आपको इस जगह के बारे में बता ही देता हूं। यह जगह हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में और शिवालिक पहाडियों के बीच बसी है। इस जगह का नाम रेणुका जी है। दिल्ली से तकरीबन 295 किलोमीटर तथा छ: से सात घंटे की दूरी मात्र पर स्थित है यह रेणुका जी। यह अपनी सुंदर झील के लिए प्रसिद्ध है जिसे अगर ऊपर आसमान से देखा जाए तो यह झील एक स्त्री का रूप लिए दिखती है और इस जगह को भगवान परशुराम जी की जन्मस्थली भी माना जाता है। आपको इस जगह के बारे में जानकर अच्छा लगा ना। जब आप यहां आएगे तब आपको और भी अच्छा लगेगा।

क्या क्या देखें…
यहां पर बहुत सुंदर व पवित्र झील है। जिसकी लोग परिक्रमा भी करते है। यह परिक्रमा मार्ग लगभग तीन किलोमीटर लम्बा है। जिस पर चलना बहुत ही रोमांचित करने वाला होता है । एक तरफ झील का सौंदर्य आपको मोहित कर रहा होता है तो दूसरी तरफ बने चिडियाघर में जानवरो को देखना बेहद अच्छा लगता है। भालू, शेर, तेंदुए और हिरण जैसे जानवर भी यहां पर आप देख सकते है। इन सभी जानवरो को अलग अलग व खुले पिंजरों में रखा गया है। जिन्हे देखकर बच्चे तो बच्चे बड़े भी बहुत आन्नद लेते है। और इन्ही के कारण झील की परिक्रमा कब पूरी हो जाती है हमे एहसास ही नही होता। यह कुछ जंगल सफारी जैसा महसूस कराता है। झील की परिक्रमा आप अपनी कार व दोपहिया वाहन से भी कर सकते है लेकिन सोमवार को यह सुविधा नही होती। सोमवार के दिन सिर्फ पैदल ही परिक्रमा होती है। झील में मौजूद कई तरह की मछलियां व कछुआ देखने को मिलते है। कुछ लोग आटे की बनी गोलियों इनको खिलाते है। इन्हे देखना भी बडा मनमोहक होता है। झील के किनारे पर बने कुछ मन्दिर व आश्रम भी दर्शनीय है। झील के निकट भगवान परशुराम राम मन्दिर व उनकी तपस्थली भी देख सकते है। परशुराम की माता रेणुका जी, जिनके नाम से यह झील है, उन का मन्दिर भी नजदीक है। यहां पर बहुत तरह के पक्षियों को भी देख सकते है और इनकी सुरीली चहचहाहट हर जगह सुनने को मिलती रहती है।

कहां ठहरे…
यहां पर ठहरने के लिए हिमाचल प्रदेश का गेस्ट हाऊस भी बना है। जो झील के बेहद नजदीक है। साथ मे आप झील के नजदीक बने आश्रमों में भी ठहर सकते है। आप रेणुका झील से तकरीबन दो किमी पहले गिरी नदी के किनारे पर बसे एक कस्बे ददाहू में भी ठहर सकते है। यहां पर कई होटल बने है।

कैसे पहुंचे…..
रेणुका जी सड़क मार्ग से कई बडे शहरो से जुडा है। दिल्ली से पानीपत व कुरूक्षेत्र होते हुए कालाअम्ब पहुँचा जाता है, जहां से नाहन और रेणुका पहुंच सकते है। दिल्ली से रेणुका झील तक सड़क मार्ग की दूरी मात्र 295 किलोमीटर है। अम्बाला शहर से रेणुका जी मात्र 115 किलोमीटर की दूरी मात्र पर स्थित है। देहरादून से रेणुका जी बेहद नजदीक है यहां से रेणुका झील मात्र 95 किलोमीटर की दूरी पर ही है। रेणुका जी के नजदीक ददाहू कस्बे से देहरादून व शिमला और अन्य जगहों के लिए बस सर्विस भी उपलब्ध है।

रेणुका झील का पौराणिक महत्व….
रेणुका झील के निकट भगवान परशुराम की जन्मस्थली भी है। रेणुका जी परशुराम जी की माता थी। इस झील का नाम रेणुका झील क्यों पडा इसके पीछे एक पौराणिक कहानी है…….
कभी पहले यह घनघोर जंगल हुआ करता था। यहा पर ऋषि जमदग्नि और उनकी पत्नी भगवती रेणुका जी का आश्रम था। उनके पुत्र राम (जो बाद मे शिव जी के फरसे के कारण परशुराम कहलाए) रहते थे। बालक राम अपनी तपस्या के लिए कही गए हुए थे। उसी दौरान जंगल में शिकार खेलने के लिए राजा सह्त्रबाहु आया, वह बहुत भूखा-प्यासा था। इसलिए वह जमदग्नि के आश्रम को देखकर, वहां पहुंचा। वहां रेणुका जी ने उन्हे बहुत स्वादिष्ट कई तरह के व्यंजन खाने के लिए दिए। राजा भोजन करने के बाद बहुत खुश हुआ, उन्होने रेणुका जी से पुछा की आप इस घने जंगल में इतने स्वादिष्ट भोजन कहां से लेकर आई? तब रेणुका जी ने उन्हे अपनी कामधेनु गाय के विषय में बताया। कामधेनु से जिस चीज की आप इक्छा करेगे यह गाय उन सभी इक्षाओ को पूरा करती है। तब राजा सहत्रबाहु ने अपने बल के जोर पर वह गाय अपने अधिकार में ले ली और ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी। और बल पूर्वक माता रेणुका को भी ले जाने लगा तब रेणुका जी ने अपनी लाज बचाने के लिए, वहां पर बने एक सरोवर मे जल समाधि ले ली। उधर परशुराम बडे हुए और शिव से शस्त्र शिक्षा ग्रहण कर अपने घर पहुचें तब उन्हे राजा सहस्त्रबाहु के इस अपराध के बारे में पता चला। उन्होनो राजा सहस्त्रबाहु व उसकी सम्पूर्ण सेना का विनाश अपने फरसे से कर दिया तब से ही वह राम से भगवान परशुराम कहलाए। उन्होने अपने तपोबल से अपने पिता ऋषि जमदग्नि को जिन्दा कर दिया और अपनी मां को भी सरोवर से बाहर आने पर मजबूर कर दिया । तब माता रेणुका जी ने परशुराम जी को वचन दिया की वह हर वर्ष देव प्रवोधिनी एकादशी को इस सरोवर से बाहर आया करेगी और सभी भक्तों को दर्शन व आशीर्वाद देती रहेगी। इतना कहकर मां रेणुका जी सरोवर के जल मे विलिन हो गई। तब से यह सरोवर रेणुका झील कहलाने लगा।

भानगढ़ किले की यात्रा

21 जनवरी 2018

भानगढ़ का इतिहास :
भानगढ़ क़िले को आमेर के राजा भगवंत दास ने 16 वी शताब्दी (1573 )में बनवाया था। बाद में भगवंत दास के पुत्र व राजा मान सिंह के छोटे भाई माधो सिंह ने इसे अपनी रियासत की राजधानी बना लिया। माधो सिंह मुग़ल शहंशाह अकबर के राज में उनके दीवान थे। माधो सिंह के बाद उसका पुत्र छत्र सिंह गद्दी पर बैठा। कुछ समय पश्चात हरिसिंह का शासन भानगढ़ पर रहा । यही से भानगढ़ का पतन शुरू हुआ। छत्र सिंह के बेटे अजब सिह ने भानगढ़ के नजदीक ही अजबगढ़ का किला बनवाया और वहीं रहने लगा। इस समय औरंगजेब का क्रूर शासन पूरे भारत में फैला हुआ था। औरंगजेब कट्टर पंथी मुसलमान था। उसके दबाव में आकर हरिसिंह के दो बेटे मुसलमान बन गए, बाद में जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह ने इन दोनो को मारकर भानगढ़ पर कब्जा कर लिया तथा माधो सिंह के वंशजों को भानगढ़ का राज्य सौंप दिया।

( यह जानकारी भानगढ़ में लगे एक पुरातत्व विभाग के बोर्ड़ व विकिपीडिया द्वारा प्राप्त जानकारी के आधार पर है।)
यात्रा वृतांत
कुछ दिन जयपुर में परिवार संग घुमक्कड़ी कर वापिस घर की तरफ लौट रहा था। मुझे भानगढ़ क़िले को देखने की बहुत दिन से इक्छा थी, भानगढ़ अलवर ज़िला में स्तिथ है। यह सरिस्का वन अभ्यारण के नजदीक है। इस क़िले को भूतिया क़िला कहा जाता है। इसलिए हम जयपुर से भानगढ़ की तरफ चल दिए। जयपुर से भानगढ़ की सड़क से दूरी तक़रीबन 70 किलोमीटर है जिसको तय करने में डेढ़ से दो घंटे लग जाते है। दोपहर के साढ़े बारह का समय हो रहा था जब हम जयपुर से चले। हमने जयपुर आगरा रोड पकड़ लिया। यह रोड बहुत बढ़िया बना है। जयपुर से निकलते ही पहाड़ो के बीच से निकली एक लम्बी सुरंग मिली यह कुछ-कुछ मनाली के रास्ते में ओट जगह के नजदीक वाली सुरंग जैसी थी। वैसे इन सुरंगो को बनाने में बहुत मेहनत करनी होती है। लेकिन सड़़क यातायात केे मार्ग सुगम बन जाते है। सुरंग से पहले एक टोल पर ऐसा वाक्या हुआ जिस पर मुझे अपने आप पर बहुत शर्म आयी। हुआ यूँ की में एक टोल पर लाईन में लगा था तभी एक व्यक्ति बोला की आप उधर लाइन में मत लगो इधर वाली लाईन में लगो। तब मैंने उससे कहा की मैं इधर ही लगाऊगा अपनी गाड़ी । फिर उसने बोला की यह टोल प्राइवेट गाड़ी के लिए फ्री है और आप टोल देय वाली लाईन में लगे है। तब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ और उस व्यक्ति को धन्यवाद बोलकर टोल बैरियर सेे बाहर गया और आगे बढ़ चला। गूगल मैप पर देखा तो भानगढ़ अभी भी तकरीबन 60 km की दूरी पर था। हमे दौसा तक इसी सड़क पर आगे बढना था फिर दौसा से एक सड़क बांंयी तरफ भानगढ़ के लिए चली जाती है, और सीधी सड़क भरतपुर की तरफ चली जाती है।
सुबहे होटल में ही नाश्ता किया था अब भूख जोरो से लग रही थी। इसलिए सड़क के किनारे पर बने एक ढ़ाबे पर पेट पूजा की गयी। खाना खाने के बाद हम आगे की और चल पड़े। जल्द ही दौसा पहुंच गए, दौसा में काफी होटल है जहा रुका जा सकता है और आसपास के दर्शनीय स्थलों को देखा जा सकता है। हम बांये रास्ते को मुड़ गए यहाँ से भानगढ़ तक़रीबन 32 km है। मतलब 40 मिनटों में हम वहां पहुंच ही जायँगे। अब रोड छोटा हो चला था कही कही सड़क निर्माण कार्य चल भी रहा था। कुल मिला कर रोड ठीक ठाक था। अब हमे ग्रामीण परिवेश में होने का अहसास हो रहा था। सड़क के दोनों तरफ गाँव दिख रहे थे। कही कही कुछ लोग राजस्थानी पहनावा पहने भी दिख रहे थे। हम शाम के लगभग चार बजे भानगढ़ पहुंचे। क़िले से कुछ दूरी पर 50 रुपयों की एक पर्ची काटी गयी। बाकि क़िले देखने का कोई टिकट नहीं था।
गाड़ी एक तरफ खड़ी कर हम क़िले में प्रवेश कर गए। प्रवेश द्वार के ही समीप हनुमान मंदिर बना है। यहाँ से आगे चलते ही पुराना बाजार आ जाता है रास्ते के दोनों तरफ दुकाने बनी है, जो कभी दो मंज़िला रही होगी। जिनको देखकर लगता है की कभी यहाँ पर बहुत बड़ा बाजार रहा होगा। आज मात्र उनके खंडर अवशेष ही बचे है। इस बड़े बाजार से होते हुए हम एक और दरवाजे पर पहुंचे। यह महल का दरवाजा है। दरवाजे के बायें तरफ एक खंडरनुमा इमारत है, और दाहिनी तरफ गोपीनाथ मंदिर है। गोपीनाथ मंदिर कभी विष्णु भगवान को समर्पित होगा लकिन फ़िलहाल यह मंदिर मूर्ति रहित है। मंदिर की बुर्ज भी नहीं है। लकिन यह मंदिर बाहर से उत्तम वास्तुकला का एक सुन्दर उदाहरण है। जब कभी यह महल आबाद रहा होगा तब यह कितना सुन्दर रहा होगा। केवल आज हम सोच ही सकते है। यह क़िला तीन तरफ से अरावली की पहाड़ियों से घिरा है। जो इसे और भी खूबसूरत बनाता होगा, लकिन आज यह एक भूतिया क़िला मात्र बन कर रह गया है। थोड़ा आगे चलने पर एक पानी की बाबड़ी है, जिसमे आज भी भरपूर पानी था। बाबड़ी के नजदीक ही सोमेश्वर महादेव मंदिर है। जो शिव को समर्पित है, यही पर हमे एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया की अब पर्यटक इधर आने लगे है पहले केवल आसपास के लोग ही आते थे। उसने हमे यह भी बताया की यहाँ कोई भूत -प्रेत नहीं है। यहाँ केवल जंगली जानवर है जिसमे जंगली सूूअर व तेंदुआ है जो गर्मीयो में यहाँ बाबडी पानी पीने भी आते है। उसने बताया की वह यहाँ कई साल से आता है लकिन उसे आज तक यहां कोई भी ऐसी अजीब बात महसूस नहीं की जिससेे यह साबित हो की यहां पर भूत प्रेत रहते है। उसने तांत्रिक सिंघिया की कहानी को भी नकली बताया। उसने एक पहाड़ी की तरफ इशारा करतेे हुुुए, एक छतरी दिखाई उस ने बताया की लोग उसे तांत्रिक की छतरी कहते है , और तरह तरह की कहानियों से जोड़ते है। जबकी वह पहले सैनिको के लिए रही होगी जहां सेे वह दूूूर तक नजर रख सके। उसको धन्यवाद करने के बाद हम मंदिर से बाहर आ गए

श्रीमती जी
मैं ही हूँ सचिन त्यागी

मंदिर से थोड़ा आगे चलकर एक और दरवाजा आया जो मुख्य महल या कहें की शाही राजमहल का था। कहते है की कभी यह कई मंजिला था लकिन आज दो या तीन मंजिल का ही रह गया है वो भी जर्जर हालत में। वैसे इस क़िले को भारतीय पुरातत्व विभाग ने अपने अधिग्रहण कर लिया है। हम किले की पहली मंजिल पर पहुुुुँचे, यहां पर आकर मेेेेरी श्रीमती और बेटा ऊपर नहीं गये क्योकि वो चलते चलते बहुत थक चुके थे। मैं ही ऊपर किले की तरफ चला गया। पहली मंजिल पर एक गलियारा बना था जिस के अंदर कमरे बने थे। जो अंधेरा समेटे हुए थे। यहां मेरे अलावा ओर कोई नही दिख रहा था। इसको देखकर मैंने अनुमान लगाया की यह जेल भी हो सकती है या फिर सैनिको की विश्राम करने की जगह भी। यहाँ से ऊपर चलने पर छत आ जाती है। इसकेे ऊपर जो मंजिले थी वह आज पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है। कभी यह बहुत सुंदर बना हुआ होगा, हर जगह चहल पहल रहती होगी।

इस किले की बर्बादी की भी बहुत सी कहानी है। इतिहास में वर्णित है की अज़बगढ़ और भानगढ़ में युद्ध हुआ जिसमे भानगढ़ हार गया और सब मारे गए और यह किला भी तबहा हो गया। लकिन कुछ लोगो का मानना है, की भानगढ़ तबाही के पीछे एक तांत्रिक सिंघिया का श्राप है। कहते है की भानगढ़ में एक तांत्रिक रहा करता था। जो काले जादू करने में माहिर था। उसने भानगढ़ की राजकुमारी रत्नावती को देखा और उस पर मोहित हो गया। वह उसको हर कीमत पर पाना चाहता था। उसने काला जादू कर एक इत्र की शीशी को राजकुमारी तक पंहुचा दिया अगर राजकुमारी उस इत्र को लगा लेती तो वह भी उसकी तरफ मोहित हो जाती लकिन रत्नावती को उस तांत्रिक की इस चाल का पता चल गया और राजकुमारी ने वह इत्र की शीशी एक पत्थर पर फैक कर तोड दी। जिससे यह हुआ की वह पत्थर तांत्रिक के काले जादू के कारण तांत्रिक पर मोहित हो गया और उसी पत्थर के कारण तांत्रिक की मौत हो गई। लेकिन तांत्रिक सिंघिया ने मरते मरते भानगढ़ को यह श्राप दिया की भानगढ़ पूरी तरह से तबाह हो जाएगा और सभी लोग मारे जाएगे। कहते है की बाद में अजबगढ़ ने भानगढ़ पर हमला किया जिस युद्ध में सब मारे गए और उनकी आत्मा व तांत्रिक सिंघिया की आत्मा आज भी भानगढ़ में मौजूद है। इसलिए ही इस किले को भूतिया किला माना गया है

मैं ऊपर से नीचे आ गया। अब समय भी लगभग शाम के पांच बज रहे थे। रास्ते में मुझे एक स्थानीय लडका मिला वह पास के गांव में ही रहता था। उसने बताया की वह कई बार इधर आया है। लेकिन उसे आज तक कोई भूत प्रेत नही दिखाई दिया है जबकी रात में जंगली जानवर जरूर उसके गांव तक आ जाते है। उससे बात कर हम बाहर की तरफ चल पडे। एक दो मन्दिर और बने है किले में लेकिन वह थोडा हट कर बने है इसलिए उधर ना जा सका। सीधा बाहर के गेट पर पहुंच गया, यहां गेट के साथ ही हनुमानजी का मन्दिर बना है वही पर एक बूढे बाबा बैठे थे। जो उस मन्दिर के पुजारी भी थे। उनसे कुछ लोग बात कर रहे थे । उनसे पूछ रहे थे की इस जगह को लोग भूतीया किला क्यो कहते है? और आपने कभी कुछ महसूस किया? उन बाबा ने कहा की मुझे यहां पर कई बार कुछ अजीब महसूस हुआ है, रात में जब मन्दिर में पूजा करने के बाद जब जाता हूं तब भी लगता है की कोई है आसपास। उन्होने बताया की वह भी रात में मुख्य किले में नही जाते।

उनकी बात सुनकर मैं किले से बाहर निकल आया। और अपनी कार में बैठ, दिल्ली के लिए निकल पडा। रास्ते में कई सवाल मन में आ रहे थे की दो व्यक्तियों ने यहां पर भूत प्रेत की घटना को केवल कहानी मात्र बताया जबकी तीसरे व्यक्ति ने यहां पर कुछ अजीब होना स्वीकार किया। चलो जो भी हो मुझे यह किला देखना था और मैने देख लिया था।

एक वीडियो भी बनाया है , जिसमे आप भानगढ़ क़िले का भृमणर सकते है।
वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करे।

ओरछा ,orchha (मध्यप्रदेश) 

मुकेश पांडेय जी द्वारा

ओरछा का राजमहल रात मे
बेतवा नदी व बुंदेली राजाओ की छतरीयां

आज में आप के सामने उस जगह का वर्णन कर रहा हूं, जहां पर जाने की मुझे बहुत ज्यादा जिज्ञासा थी। आज से तकरीबन चार साल पहले जब मैं ग्वालियर घूमने के लिए गया था। तब मुझे ओरछा के बारे में पहली बार पता चला। वहां पर मैने ओरछा की कई तस्वीरें देखी, जिनको देखकर में लगभग मोहित हो गया था। इन तस्वीरों में से एक तस्वीर में बेतवा नदी में रीवर राफ्टिंग करती बोट व पीछे बुंदेली छतरीयो को दर्शाया गया था। तभी से मेरे मन मे ओरछा की एक तस्वीर बन गयी और मैंने उसी दिन यह तय कर लिया कि एक बार ओरछा जरूरः जाना है। फिर मैं एक वाट्सएेप ग्रुप घुमक्कड़ी दिल से जुड़ा। उसी ग्रुप में कुछ दिन बाद ओरछा के रहने वाले श्री मुकेश पांडेय जी (अाबकारी निरीक्षक) जुड़े। उनसे दो तीन दफा अोरछा के बारे में बात भी हुई। फिर कुछ दिन बाद घुमक्कड़ी दिल से ग्रुप का एक महा मिलन कार्यक्रम ओरछा में रखा गया। जहां लगभग सभी सदस्य आए। उसी में शामिल होने व अपनी मनपसंद जगह घूमने के लिए मैं भी ओरछा गया। ओरछा जितना सुंदर तस्वीरों में दिखता है, यह सच में उससे भी बहुत सुंदर है। सुंदर कलाकृतियों का गढ़ है ओरछा। अोरछा मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में स्थित है। ओरछा की हर पुरानी इमारत एक कहानी कहती है। चाहे वो राजा मधुकर शाह और रानी गणेश कुँवर की हो या फिर स्थानीय देवता हरदौल की। एक कहानी राजसी नृत्यांगना राय प्रवीण की भी है जिसे राजकुमार इंद्रजीत सिंह प्यार करते थे लेकिन उनकी यह कहानी भी अधुरी रह गई। हर कहानी सुनने में बडी दिलचस्प है, जिसे सुनते सुनते आप उस काल में पहुंच जाने का अनुभव करेंगे। अोरछा के सबसे निकटतम शहर झांसी है। ओरछा में देखने व जानने के लिए बहुत कुछ है। एक घुमक्कड या पर्यटक यहां आकर निराश नही होता।

1- ओरछा क्यो जाए?
@ ओरछा का इतिहास बहुत पुराना है। ये बुंदेलों की राजधानी हुआ करती थी। झांसी और ओरछा बहुत पास पास भी है। ओरछा में आप पुरानी इमारतों को देख सकते है। साथ मे जंगल सफारी का आनंद भी उठा सकते है। बेतवा नदी में रिवर राफ्टिंग भी यहाँ होती है। कई प्राचीन मंदिर भी यहां बने है, जिनको देखने आप जा सकते है। और भगवान राम का प्रसिद्ध राम राजा मन्दिर भी यहां है जहां आज भी भगवान राम को राजा के रूप में पूजा जाता है।

2- ओरछा में क्या क्या देखे?
@ओरछा में आप ओरछा का महल, जहाँगीर महल, चतुर्भुज मन्दिर, ओरछा का राम राजा मन्दिर, हरदौल की बैठक, सावन भादो मिनार, बेतवा नदी व रिवर राफ्टिंग, बेतवा नदी के किनारे बनी बुंदेली राजाओ की छतरीयां( समाधी)। साथ में आप ऐतिहासिक व धार्मिक प्रष्ठ भूमी ओरछा की गौरव गाथा सुनने व देखने जा सकते है। आप यहां आकर निराश नही होगे।

3- ओरछा कैसे आए व कहां ठहरे?
@ आप ओरछा यातायात के तीनो साधनो से आ सकते है। अगर आप हवाई जहाज से आ रहे है तो नजदीकी हवाई अड्डा ग्वालियर है जो ओरछा से तकरीबन 125 किलोमीटर की दूरी पर है। अाप रेल के माध्यम से भी आ सकते, आपको झांसी रेलवे स्टेशन उतरना होगा। ओरछा से झांसी केवल 19 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सडक मार्ग से आप ग्वालियर, दतिया, झांसी होते हुए ओरछा पहुंच सकते है। ओरछा में ठहरने के लिए कई होटल है।

4- अोरछा कब आना चाहिए?
@ वैसे तो आप पूरे साल ओरछा जा सकते है। लेकिन सर्दीयो में ओरछा घुमना सही रहता है क्योकी आप गर्मी से परेशान नही होगे और घुमने का पूरा आनंद लेंगे। वैसे आप बारिश के दौरान भी ओरछा आ सकते है क्योकी इस समय ओरछा में बहुत हरियाली होती है।

5- ओरछा के आसपास और क्या देख सकते है?
@ ओरछा के आसपास आप ग्वालियर शहर जा सकते है।जहां आप सिंधिया पैलेस व ग्वालियर का किला साथ में बहुत सी जगह घुम सकते है। ओरछा के नजदीक झांसी शहर भी है, जहां आप महारानी लक्ष्मीबाई का किला व म्यूजियम भी देख सकते है। ओरछा से आप दतिया भी जा सकते है जहां आप कई किले व पीताम्बरा माता के दर्शन भी कर सकते है।

गनेश द्वार
चतुर्भुज मन्दिर ,ओरछा

राजा राम मन्दिर रात में

राम राजा मन्दिर

मुकेश पांडेय द्वारा
चतुर्भुज मन्दिर के ऊपरी तल पर
वन विहार ओरछा
हम घुमक्कड़ दोस्त
शाम को बेतवा नदी
बेतवा नदी

ओरछा का महल

रिवर राफ्टिंग ( मुकेश पांडेय जी)

बरसुडी एक अंजाना सा गाँव (मेडिकल कैम्प व दिल्ली वापसी) 

इस यात्रा को शरुआत से पढ़ने के लिए यहाँ क्लीक करें। 

अब तक आपने पढा की हम कुछ दोस्त अपने अपने शहरो से बरसुडी गांव आए। हमने यहां पर बच्चो के लिए बरसुडी के स्कूल में एजूकेशन कैम्प लगाया ।

अब आगे… 
14,aug,2017
सुबह आराम से सात बजे उठा । क्योकि आज कैम्प बरसुडी में ही लगाना था। उठते ही मैं पंचायत भवन पहुंचा। यहां पर मुरादाबाद से आए दोस्त योगेश शर्मा जी भी मौजूद थे। कुछ देर हम साथ बैठे रहे । कल व आज की चर्चा चली। फिर मैं वापिस हरीश जी के घर पहुंचा। उन्होने चाय बना दी थी। चाय के साथ उनसे बात होती रही। आज वह नीचे शहर की तरफ जा रहे थे। कल 15 अगस्त है इसलिए स्कूल मे बच्चो को दी जाने वाली मिठाई लेने शहर जा रहे थे। जब मैं स्कूल में पढता था तब हमे भी लड्डू मिला करते थे। वह समय याद आ जाता है कभी कभी। हरीश जी चले गए। हम भी नहा- धौकर पंचायत भवन पहुंच गए। आज यहां पर मेडिकल कैम्प लगाया जाएगा। मेडिकल कैम्प के संचालक के लिए डॉ प्रदीप त्यागी जी व डॉ अजय त्यागी जी को जिम्मेदारी दी गई। यह दोनो ही मुख्य डॉक्टर रहेंगे जो मरीजों की जांच व जरूरी सलाह देंगे। लेकिन गांव के कुछ लोग हिन्दी नही समझते है वह सिर्फ गढ़वाली ही जानते है ऐसे मरीजो के लिए श्री मति शशि जी जो उत्तराखंड की ही रहने वाली है और एक अध्यापिका भी है वह ऐसे मरीजो और डॉक्टर के बीच संवाद कराएगी। दवाई बांटने का जिम्मा मुझ पर व नरेंद्र चौहान जी पर था। लगभग सुबह के 9 बजे हमने बैनर, टेबल पर दवाई लगा कर सारी व्यवस्था कर दी। लेकिन कुछ दवाई जो कल ही आ जानी थी वह किसी कारणवश नही आ पाई। वह दवाई गुमखाल में रखी थी इसलिए पानीपत के सचिन कुमार जांगडा व राजस्थान से आये एक दोस्त रजत शर्मा जी बाईक पर उन दवाइयो को लेने चले गए। 

बरसुडी की सुबहा 
बरसुडी की सुबहा और केले के खेत 
टमाटर 
मेडिकल कैंप का बैनर 
कैंप में आते लोग 
डॉक्टर्स और शशि जी अपना अपना कार्य करते हुए। 
डॉ अजय जी मरीज से वार्ता कलाप करते हुए। 
मेडिसिन 
डॉ. प्रदीप जी मरीजों का इलाज करते हुए। 
बच्चे हो या बूढ़े सभी मेडिकल कैंप में आये। 
हम दोस्तों की एक साथ सेल्फी। 
अमन मल्लिक जी और मैं सचिन 
शशि नेगी जी और मैं सचिन एक सेल्फी में 
मैं और बीनू के चाचा जी( भीम दत्त कुकरेती जी )
गांव के बुजुर्ग कैंप में आते हुए 
बरसुडी आने जाने वाले रास्ते पर लैंड स्लाइड हो गया था हमारे घुमक्कड़ साथियो ने पत्थर हटा कर बाइक के लिए रास्ता बनाया था। उसी पल का एक फोटो। 

हलवाई नें नाश्ते में भरवा कचौडी व चाय बनाई। जिसका स्वाद हम घुमक्कड दोस्त व गांव वासियों ने भी लिया। नाश्ते के बाद सभी को खाने के लिए बेसन के लड्डू भी दिए गए। मरीजो में ज्यादातर संख्या बुजुर्गों की ही थी। हमारे दोनो डॉक्टर  बहुत अच्छी तरह से मरीजों की समस्या को सुन रहे थे व उन्हे जरूरी बातो के अलावा दवाई भी दे रहे थे। कुछ मरीजों को दवाई नहीं मिली थी उनको दवाई घर जाकर देने को भी कहा। मेडिकल कैंप में शामिल होने बहुत से लोग आ रहे थे। जिसको देखकर हम सभी खुश थे। बरसुडी गांव में कोई डॉक्टर या किसी भी प्रकार डिस्पैंसरी नहीं है इसलिए बीनू भाई ने मेडिकल कैंप लगाने की सलाह दी। जिसे आज हम सफल होता देख रहे थे।

आज हमारे बहुत से घुमक्कड़ साथी अपने अपने घर लौट रहे थे। कुछ सुबह ही चले गए थे। कुछ जाने की तैयारी कर रहे थे। बाकी कुछ साथी मेडिकल कैम्प को पूरा करने के बाद कल जाएगे। मै भी तकरीबन 11 बजे बरसुडी से चल पडा। कैम्प अभी जारी रहेगा लगभग तीन बजे तक । मेरे साथ झारखंड से आए एक दोस्त अमन मलिक जी भी चल रहे थे। जिनको मुझे दिल्ली छोडना था। हमसे कुछ आगे मुजफ्फरनगर से आए जावेद जी व राजस्थान से आए कोठारी साहब चल रहे थे। हमारे साथ रामानन्द जी भी चल रहे थे जो अपनी जॉब पर द्वारीखाल जा रहे थे। जब मै वापिस आने से पहले उनसे मिलने उनके घर पर गया तब उन्होने बोला की वह भी द्वारीखाल जा रहे है आप चलो, मैं भी आता हूं। रामानंद जी हमे द्वारीखाल दूसरे रास्ते से ले जा रहे थे जो थोड़ा ऊपर और पेड़ो के बीच से गुजरता है। जिस रास्ते से हम परसो आये थे, वह रास्ता कुछ नीचे साथ साथ चल रहा था। वैसे ऊपर वाले रास्ते पर धूप नही लग रही थी, साथ में शीतल हवा भी लग रही थी। यह रास्ता नीचे वाले रास्ते से बहुत छोटा था मतलब केवल पैदल चलने के लिए ही था। लेकिन बहुत सुंदर था। यहाँ से दूर तक का द्रशय भी दिख रहा था। हम बात करते हुए आगे पीछे चल रहे थे। अब हमें हल्की हल्की चढाई ही मिल रही थी। रास्ते में कुछ मधुमक्खीयो ने मुझे अपना डंक मार दिया। अमन मलिक जी जिनको हम प्यार से दादा कहते है। उन्होंने तुरंत हाथ मे पहने लोहे के छल्ले से उस जगह को रगड दिया।लकिन मुझे अब भी बहुत दर्द हो रहा था लेकिन बाद घर तक पहुंचने पर दर्द सही हो गया था।

अब हम वापिस चल पड़े 
ऊपर चोटी पर भैरव गढ़ी मंदिर है। 
रास्ते के सुन्दर नज़ारे 
रास्ता जो सकून देता है मन को 
रास्ते में एक बच्चा मिला जो अपनी भेड़ बकरियों को चराने लाया हुए था। 
हम ऊपर वाले रास्ते पर थे नीचे भी एक रास्ता है 
ये रास्ते और सुन्दर वादियां 
चीड़ का पेड़ 
जब दादा ने मेरी मदद की मधुमखियो से तो मैंने दादा को चीड़ का यह फूल दिया। 
रामानंद ने ये कसैला फल खिला दिया था मुझे। 
दादा और बरसुडी गांव 

अब हम द्वारीखाल पहुंचे उसी दुकान पर चाय पीने के बाद हम चल पडे। द्वारीखाल से कोटद्वार,  कोट्द्वार से खतौली होते हुए हम दिल्ली पहुंच गए। अमन जी को मैने मैट्रो स्टेशन पर छोड दिया और मैं लगभग रात के 8:30 पर घर पहुंच गया।

यात्रा समाप्त…..

पिछला भाग पढ़े—-
इस यात्रा के सभी भाग
1 – दिल्ली से बरसुडी 
2 – बरसुडी एजुकेशन कैंप 

बरसुडी एक अंजाना सा गांव ( एजुकेशन कैम्प) 

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने के लिए क्लिक करें। 

आपने अभी तक पढा की मै और बाकी कुछ दोस्त कल बरसुडी पहुँचे। एजूकेशन कैम्प व मेडिकल कैम्प लगाने के लिए….

अब आगे… 
13/अगस्त/2017
सुबह जल्दी ऊठ गया। बाहर कुछ पक्षियों ने सुरीला राग जो छेडा हुआ था। हरीश जी ने बैड टी (चाय) बना कर पिला दी। बाकी दोनो दोस्त अभी बिस्तर पर ही विराजमान थे। चाय पीने के बाद मैं थोडा घुमने चल पडा। पक्षी अभी भी सुबह सुबह मधुर गीत सुना रहे थे। कुछ लोग अपनी बकरियों व गाय को चारा दे रहे थे। कुछ बुजुर्ग लोग घर से निकल कर बाहर बैठे हुए थे। मै घुमता हुआ पंचायत भवन पहुंचा, जहां रात हमने खाना खाया था। थोडी देर बाद बीनू भी आ गया। बीनू और मैने बच्चो को दिए जाने वाले गिफ्ट व बांटे जाने वाली अन्य सामाग्री को अलग कोने में रख दिया। जिससे कोई समान यहां रह ना जाए। क्योकी हमे तकरीबन 2 किलोमीटर नीचे स्कूल में पहुँचना था। समान अलग रख कर मैं वापिस कमरे पर पहुंचा। नहाने व दैनिक कार्यो से निवर्त होकर हम तीनो तैयार थे स्कूल जाने को। हरीश जी ने एक बार और चाय व साथ में खाने के लिए बिस्किट दिए। समय लगभग 7:30 हो रहा था। हम सब पंचायत भवन पहुंचे और कुछ समान लेकर नीचे स्कूल की तरफ चल पडे। स्कूल तक बहुत उतराई थी मतलब आते वक्त बहुत चढ़ाई मिलेगी। हम बिना थके आगे बढ़ चले। हरीश जी पांचवी तक के स्कूल में रूक गए और हमे कहा की मै कुछ काम करके आता हूं आप लोग नीचे बडे स्कूल पर पहुंचे जहां पर आज दोनो स्कूलो का कार्यक्रम होना है।

हम नीचे की तरफ चल पडे। यह पगडंडी बहुत सुंदर है रास्ते में एक जगह छोटा सा झरना भी मिला जिसमे बहता पानी बडी सुंदर ध्वनि दे रहा था। कुछ देर बाद हम स्कूल पहुंच गए। हमसे पहले कुछ साथी भी आ चुके थे। स्कूल के टीचर व बच्चे कार्यक्रम के अनुसार तैयारियों में लगे हुए थे। हमारे हलवाई सब के लिए नाश्ता व बाद में खाने की तैयारियां कर रहे थे। हर कोई कार्य में शामिल था। मैने मोबाईल देखा तो एयरटेल के सिग्नल आ रहे थे घर फोन करके अपना हालचाल व उनका हालचाल बता व सुन लिया। बाकी ऊपर बरसुडी में सिग्नल नही मिल रहे थे। वोडाफोन व बीएसनल के सिग्नल भी कही कही आ रहे थे। स्कूल पर ऊंचाई नापी तो यहा की ऊंचाई लगभग 1120 मीटर दर्शा रही थी मतलब हम दो किलोमीटर में लगभग 200 मीटर नीचे आ गए है। यह स्कूल गांव के शहीद नायक कलानीधी कुकरैती जी के नाम से बना है। आप कश्मीर में तैनात थे और देश के फर्ज निभाते हुए आप शहीद हो गए। यह स्कूल दसवीं तक का है। फिर आगे की पढाई के लिए गांव के बच्चो को गुमखाल से आगे जहरीखाल जाना होता है। शहीद कलानिधि जी अपने हरीश कुकरैती जी के छोटे भाई थे। उनको मेरा नमन है।

बरसुडी की सुबहे 
बरसुडी की सुबहे (कमरे से )
सुबहे  सुबहे बीनू और मैं पंचायत भवन पर 
स्कूल की तरफ 
स्कूल की तरफ 

बरसुडी 
बरसुडी 
बरसुडी के माल्टे 
मैं सचिन स्कूल की तरफ जाते हुए 
स्कूल के रास्ते में मिली ये छोटी जलधारा 
हरीश जी ,गौरव जी व अन्य साथी स्कूल की तरफ जाते हुए। 
आ गए स्कूल ,कुछ साथी पहले से ही बैठे हुए मिले। 
शहीद कलानिधि कुकरेती जी जिनके नाम पर ये स्कूल है। व हरीश जी के छोटे भाई 

सब तैयारी पूर्ण होकर, कार्यक्रम का श्रीगणेश हुआ मतलब शुरूआत दीपक जला कर हुआ। पहले बच्चो के बीच भिन्न प्रकार के खेल आयोजन किये गए। जिसमे रेस,  चम्मच रेस,  बोरी रेस,  रस्सी कुद रेस आयोजित की गई। इनमे से प्रथम,  दूसरे व तीसरे नम्बर पर आने वाले प्रतियोगी का नाम पुरुस्कार के लिए नामित किया गया। फिर लडको की कबड्डी व लडकियों की कबड्डी का आयोजन हुआ। बाद मे छोटे बच्चो के बीच भी गुब्बारा फोड प्रतियोगिता कि गई। बाद में कुछ मौखिक व लिखित प्रशन प्रत्योगिता भी हुई। बच्चो ने बडी खुशी खुशी इन सब में भाग लिया। कुछ बच्चो ने हमे अपने राज्य व अपने गांव का कल्चर से भी रूबरू कराया और स्थानीय गीतो पर नृत्य किया। वाकई यह सब देखकर में बहुत अच्छा महसूस कर रहा था। हम लोग पहाड पर जाते है होटल में रूकते है, खाना खाते है इधर उधर घुम कर वापिस आ जाते है और कहते है की पहाड की यात्रा कर आए। जबकी पहाड की असली यात्रा इन गांवो में है इन जैसे कार्यक्रमो में है।

दीपक जलाते हुए और कार्यक्रम का शुभारम्भ करते हुए। 
कबड्डी लड़को के बीच। 
लड़कियों की दौड़ 
चम्मच दौड़ 
बोरी रेस 
कबड्डी लड़कियों की बीच 
लिखित प्रश्नो का उत्तर देते बच्चे साथ में रायपुर से आये ललित शर्मा जी बच्चो के बीच में 

रंग भरो प्रतियोगिता 
इसने हर रेस में भाग लिया था। 
बच्चो का रंगारंग कार्यक्रम 
बच्चो का रंगारंग कार्यक्रम 
रस्सा कूद दौड़ 

मैं और मेरे मित्र (चौहान जी , अमन मलिक व मिश्रा जी )
खाने की तैयारी करते हलवाई साथ में एक मित्र अनिल दीक्षित 

सब कार्य सम्पन्न हुए सबने मिलकर पहले नाश्ता किया फिर थोडी देर बाद खाना खाया गया। बाद में पुरस्कार वितरण व अध्यापकों का सम्मान में सम्मेलन हुआ। जिन बच्चो ने पुरस्कार जीते वह तो खुश थे ही बाकी जो जीते नही या फिर दर्शक बन कर ही रहे उन सभी बच्चो को भी एक एक गिफ्ट दिया गया। छोटे छोटे बच्चे उन गिफ्ट को लेकर बहुत खुश हो रहे थे उनकी चेहरे पर उस खुशी को देखकर हम सभी घुमक्कड़ दोस्त जो की देश के अलग अलग राज्य से आए हुए थे , सब के सब बहुत अच्छा महसूस कर रहे थे। शायद हर कोई इस सफल आयोजन पर खुश था।

खाना खाते हुए। 
गांव वाले व बच्चे 
 पुरुस्कार वितरण समारोह 
प्रिंसिपल जी का सम्मान हम दोस्तों के द्वारा 
प्रिंसिपल हरीश जी का भी सम्मान किया गया। 

मैं और रजत शर्मा बच्चो को पुरुस्कृत करते हुए। 
मौखिक प्रश्न पर बच्चो को गिफ्ट देते हुए हम दोस्त 
मैं ,अनिल और एकलव्य 
हम घुमक्कड़ दोस्तों द्वारा स्कूल को खेल सामाग्री भेंट की गयी। 

बीनू भाई को गोद में उठाये योगेश शर्मा जी ,सचिन जांगड़ा जी और मैं। 
अनिल जी रसगुल्ले का इंतजाम करते हुए। 
यह ईनाम भी दिए गए बच्चो को 

शाम के पांच बज चुके थे कार्यक्रम का समापन होते होते। अब सब ऊपर बरसुडी के लिए चल पडे। मैं,  मुस्तफा व गौरव चौधरी एक साथ चल रहे थे। रास्ता अब कठीन लग रहा था क्योकी चढाई बहुत थी और पूरे रास्ते ही चढाई थी। हम कुछ स्थानीय महिलाओं के साथ साथ चल रहे थे। फिर मै उनसे आगे हो गया एक पेड के नीचे खडे खडे सुस्ता रहा था तो वह महिलाएं जो साथ साथ आ रही थी। उनमे से एक महिला ने पूछा की आप कहा के रहने वाले हो मैने बताया की मैं दिल्ली रहता हूं,  वह कहने लगी की हम आपस में कह रहे थे की आप यही आसपास के रहने वाले हो क्योकी आप ऊंचाई पर बिना रूके ही चल रहे हो। मै सिर्फ हल्की सी मुस्कान लाते हुए कहा की वाकई मैं बढिया चल रहा हूं, और आगे बढ गया। सच्ची बताऊ मन खुश हो गया था उनकी बातों को सुनकर। अब हम प्राथमिक विद्यालय पहुंचे यहां पर पानी की टंकी थी। पानी पीया और आगे बढ़ गए। चलते चलते बहुत पसीना आ रहा था, कपडे निकालने को मन हो रहा था। पहाड पर ऐसा अक्सर होता हैै चढतेे वक्त पसीना और रूकते ही ठंड लगने लगती है। आखिरकार हम महनत कर पंचायत भवन पहुंच ही गए। यहां पर अभी कोई नही था इसलिए हम सीधा अपने कमरे की बालकनी में पहुंचे और कुर्सी पर बैठ गए। मैने तो बनियान भी निकाल दिया। थोडी ही देर बाद सब पसीना सूख गया और हल्की ठंडी हवा लगने लगी। जल्द ही कपडे पहन लिए। काफी देर तक वही बैठे रहे लगभग आधा घंटे बाद कुछ लोग पंचायती भवन पर बैठे दिख रहे थे। मैं समझ गया था की बाकी के लोग आ गए है।

वापसी स्कूल से (फोटो जग्गी जी द्वारा) 
सभी बच्चो को यह गिफ्ट दिया गया जिसे मिलते ही सभी बच्चो के मुख पर ऐसी मुस्कान थी। 
वो महिलाए जिनके साथ साथ हम ऊपर आए। 

प्राइमरी स्कूल यहाँ रुक कर पानी पीया गया। 
वापिस आकर थोड़ा रिलेक्स करते हुए 

थोडी देर बाद डॉक्टर त्यागी जी जो सम्भल (यूपी) से आए हुए थे व सचिन जांगडा जी जो पानीपत से आए हुए थे। उन्होने मुझसे पूछा की चलो आपको टंकी पर ले चलते है। हम सब नहाने जा रहे है। हम तीनो उनके साथ चल पडे। अब हम गांव के पिछली तरफ से नीचे उतर रहे थे। दूर झाली माली देवी का मन्दिर दिखलाई पड रहा था। यह देवी कुकरेतीयों की कुल देवी है। टंकी तक का रास्ता पतली पगडंडी का ही था। बरसुडी के चारो तरफ जंगल ही जंगल है। जहां पर जंगली सुअर, भालू व तेंदुए भी रहते है। यह बात हमारे मित्र मुस्तफा को पता चल गई इसलिए वह बहुत डरा हुआ था। वह थोडा डरपोक किस्म का प्राणी है। खैर हम थोडा चलने पर टंकी पर पहुंच गए। यहां पर एक विशाल बरगद का पेड है और एक बहुत बडी पानी की टंकी है। और हां यहां पर एक शिवालय भी है। हम में से कुछ दोस्त नहाने लगे तो कुछ ने मुंह हाथ ही धौए। मैने केवल मुंह हाथ ही धौए, पानी को छुते ही मुंह से यही निकला की हाय मर गए। इसका मतलब था की पानी बहुत ठंडा था जैसे बर्फ का पानी हो। अब हम तीने ने वापसी की राह पकड ली बाकी कुछ देर बाद आएगे। गांव पहुंचते पहुंचते अंधेरा फैल चुका था। थोडी देर कमरे में रूक कर व रात के कपडे पहन कर, हम खाना खाने पंचायती भवन पहुंच गए। जहां कुछ देर बातो का सिलसिला चलता रहा। हंसी मजाक चल रहा था। ऐसे पल बहुत खास होते है, जब दोस्तो से महफिले गुलज़ार होती है। हम सभी के आने से इस गांव में उत्सव जैसा माहौल बना हुआ था। सभी ने खाना खाया और अपने अपने घरो की तरफ चल पडे। यहां पर मैने घर शब्द का प्रयोग किया है क्योकी गांव के हर घर में कोई ना कोई हम में से रूका हुआ था और हम को लग ही नही रहा था की हम मेहमान है, पूरे गांव वासियों ने हम सबको इतना प्यार दिया की हम उनके घर का एक सदस्य बन गए थे। अब हम भी अपने घर को चल दिए।……

टंकी की तरफ 
टंकी का ठंडा पानी 
टंकी पर बैठे आराम करते हुए दोस्त 
शिव मंदिर बरसुडी 
अब हल्का हल्का अँधेरा हो गया था इसलिए हम वापिस चल पड़े। 

यात्रा का अगला भाग 

यात्रा का पिछ्ला भाग 

नाग टिब्बा ट्रेकिंग यात्रा (नाग टिब्बा प्वाइंट व वापसी) 

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26jan2016, tuesday 

सुबह जल्दी ही आंख खुल गई,शायद सुबह के साढ़े पांच बज रहे थे, बाहर किसी की भी बोलने की आवाज नही आ रही थी, इसलिए में टैंट के अंदर ही लेटा रहा, तकरीबन आधा घंटे बाद मैने टैंट छोड दिया, बाहर आया तो देखा, उजाला चारो ओर फैल चुका था, नरेंद्र, पंकज व जांगडा भाई भी ऊठ चुके थे, शायद सब एक दूसरे का ही बोलने का इंतजार कर रहे थे, नीरज के तापमान नापने वाले यंत्र  में देखा तो न्युनतम -5* सैल्सियस तक तापमान रात में नीचे गया था, बाहर हलचल सुनकर नीरज भी बाहर आ गया। कल रात किसी ने बाहर एक चाय के कप में पानी भर कर रख दिया था मेरी नजर उस पर पडी तो देखा की पानी पूरी तरह से जम गया था, लगभग एक इंची सतह ऊपर से पूरी तरह जम चुकी थी, इससे ही सर्दी का अंदाजा लगाया जा सकता था, बस अब की बार बर्फ नही पडी थी, खच्चर वाले ने बताया की पिछले साल यहां पर भी बहुत बर्फ थी, जबकी देवता मन्दिर भी 2600 मीटर की ऊंचाई पर है, फिर भी अब की बार बर्फ यहां नही पडी। चाय पीने का मन कर रहा था, इसलिए आग के पास गए तो देखा अब भी हल्की हल्की आग सुलग रही है, हमने बची हुई सारी लकडी आग पर रख दी ओर देखते ही देखते आग पूरी तरह से जल पडी, आग की गरमी से हाथ पैरौ मे नई जान सी आ गई, पानी की कैन मे देखा तो पानी बहुत कम था ओर एक कैन तो पूरी तरह खाली हो गई है, मै और नरेंद्र व साथ में पंकज जी भी खाली कैन ऊठा कर नाग देवता के मन्दिर की तरफ चल पडे।

थोडी दूर पर यहां के देवता नाग देवता का मन्दिर बना है, मन्दिर के पास ही एक कुंआ(कुंड) सा बना है, जिसमे पानी था, नरेंद्र जी ने कैन को कुएं मे डाला तो देखा की पानी की ऊपरी सतह जमी हुई थी, मैने पास में ही पडी एक लकडी से वो बर्फ की सतह को तोड डाला ओर नरेंद्र ने कैन मे पानी भर लिया। इस कुंड के बारे में मुझे यह पता चला की यह पानी मन्दिर के अंदर से आता है, जब यह कुंड सुख जाता है तब यहां पर लोग नाग देवता की पूजा अर्चना करते है, उन्हे दुध चढाया जाता है, तरह तरह के रंग लगाए जाते है फिर जल चढाया जाता है, पहले पहले तो कुंड मे रंगीन पानी आता है फिर कुछ ही देर में साफ पानी आने लगता है ओर कुंड भर जाता है, ओर यह पानी पीने योग्य होता है। मेरे हिसाब से यह तो एक चमत्कार से कम नही है अगर ऐसे होता है तो।

पानी भरने के बाद हम तीनो वापिस अपने टैंट पर पहुचें, चाय बनाई गई, कल के कुछ पंराठे अभी बचे रखे थे ओर कुछ बिस्किट के पैकेट भी सबने चाय के साथ उन्ही का नाश्ता कर लिया, रात वाला कुत्ता अभी भी हमारे साथ था, उसको भी कुछ खाने को डाल दिया। चाय नाश्ता करने के बाद मुहं हाथ धौकर व सुबह के कुछ ओर जरूरी कामो को निपटा कर हम सब देवता से नाग टिब्बा चोटी की तरफ चलने के लिए तैयार थे। लकिन खच्चर वाला यही रहेगा क्योकी वह अपने खच्चर को यहाँ पर अकेला नही छोड सकता था, क्योकी जो दूसरे लोग थे जो रात को यहां पर रूके थे वो लोग सुबह ही यहां से चले गए थे। खच्चर वाले ने बताया की इस समय हम जंगल मे है, ओर जंगली जानवर भी इस जंगल में मौजूद है, फिलहाल आपको कोई जानवर दिखा ना हो पर पर हो सकता उसने आप को देख लिया हो, उसने बताया की जंगली जानवर वैसे इंसानो से दूर ही रहते है, लेकिन आमना सामना हो जाए तो कुछ कह नही सकते। इसलिये में यही रहुंगा आप लोग ऊपर हो आओ।

हम लोग उसे वही छोड कर नाग टिब्बा की तरफ चल पडे। देवता से तकरीबन दो किलोमीटर की दूरी पर नाग टिब्बा चोटी है, जिसे स्थानीय लोग झंडी भी कहते है, अब रास्ता पूरा तेज चढाई वाला चालू हो गया था, इसलिए जल्द ही सांसे फूलने लगी थी, कही कही बर्फ पडी हुई दिख रही थी, एक जगह हम रूक कर अपनी सांसो को सामान्य कर रहे थे, तो देखा तो बर्फ पर किसी जानवर के पंजो के निशान है, यह निशान हमारी हथेली जितने बडे थे पर अभी हाल मे काफी दिन से बर्फ नही पडी थी इसलिए यह पुराने व गर्मी के कारण कुछ धुंधले हो गए थे, वैसे इस जंगल में भालू और लेपर्ड(तेंदुआ) भी बहुत है। यहां से आगे बढते गए, यह जंगल चीड, बुरांश व अन्य ओर पेडो का है, हम जैसे लोग जो दिल्ली जैसे शहर में रहते है उन्हे ऐसे जगह को स्वर्ग से भी सुंदर लगती है, यह सुंदर व बडी शांत जगह थी। कुछ ही देर बाद हम एक ऐसी जगह पहुचें जहां पर काफी बर्फ पडी थी, इसको पार करने के बाद झंडी(नाग टिब्बा) दिख रही थी, यह इस क्षेत्र का उच्चतम जगह है, गढवाल हिमालय की निचली पहाडियो का उच्चतम जगह । यहां पर पहुचं कर अच्छा लग रहा था, हम लोग इस जगह पर आने के लिए ही तो अपने अपने घर से चले थे, यहां पर आकर एक मुकाम हासिल करने जैसी अनुभुति हो रही थी, बाकी सभी अभी बर्फ के पास ही खेल कुद रहे थे, मै अकेला ऊपर आ गया, कुछ देर वही बैठा रहा, ऊपर हवा बहुत तेज चल रही थी, हवा ठंडक का एहसास करा रही थी। नाग टिब्बा से हिमालय की बडी ऊंची ऊंची बर्फ से ढकी चोटियो का नजारा देखने को मिलता है, पर आज बहुत बादल होने के कारण यह नजारा हमे शायद ही दिखे, नाग टिब्बा से दूसरी तरफ नीचे गया तो यहां पर भी काफी बर्फ पडी थी ओर बहुत से जानवरो के पैरों के निशान बर्फ पर लगे थे, थोडी देर बाद पंकज जी भी ऊपर आ गए, वो भी इस जगह की खूबसूरती की तारिफ कर रहे थे, थोडी देर बाद नीरज मुझे आवाज देने लगा, फिर हम सबने एक फोटो नाग टिब्बा पर एक साथ खिंचवाया। मै बाद मे बर्फ पर फिसलता हुआ नीचे आया, बहुत मजा आया यहां आकर।

तकरीबन एक घंटे से ऊपर हो चुका था हमे ऊपर आए हुए पर किसी का मन ही नही कर रहा था नीचे जाने को, लेकिन हमे आज ही लौटना था ओर पंकज जी की रात को हरिद्वार से ट्रैन भी थी इसलिए हम यहां से चल कर सीधे अपने टैंट पर ही रूके, सारा तामझाम पैक किया ओर खच्चर पर रखवा दिया। ओर चल पडे नीचे गाडी की तरफ। पहाड पर नीचे उतरना भी खतरनाक होता है, इसलिए सावधानी से ही उतरना चाहिए, कही कही शोर्ट कट भी मार कर हम उतर रहे थे। एक जगह नीरज व अन्य ने एक छोटा व तेज ढलान वाला रास्ता पकड लिया। मै ओर जांगडा व पकंज जी एक मैन कच्चे रास्ते पर ही चलते रहे, आगे जाकर हम सब उस छोटे बुग्याल पर फिर मिल गए। जहां पर हमने कल परांठे खाये थे, यहां पर बैठ कर पानी पीया, कुछ खाने को था ही नही इसलिए संजय कौशिक जी के द्वारा दी गई मुंगफली खाई।

कुछ देर बाद यहां से चल पडे, मै, जांगडा व पंकज जी साथ साथ व सबसे पीछे ही चल रहे थे, एक जंगह पंकज जी फिसल गए, पैर मे हल्की सी खरौंच लग गई, एक जगह मेरा पैर रास्ते पर बिखरे पडे पत्थरो पर फिसल गया, जिससे मेरा घुटना दर्द करने लगा, अब मेरी ओर जांगडा की स्पीड एक हो गई थी, मतलब हम सबसे पीछे चल रहे थे, एक जगह जहां पर पानी की टंकी थी वहा थोडी देर रूककर पानी पीया, चले ही थे की तभी वहा पर बने एक घर मे कुछ छोटे छोटे बच्चे खेल रहे थे, वो हमे बॉय बॉय कर रहे थे। हमने रूक कर उन्हे अपने पास बुलाया ओर जिसके पास जो टॉफी बची थी वो उन्हे दे दी, मैने तो उनको दो टमाटो सॉस व हाजमोला के चार पांच पाऊच व जो टॉफी बच रही थी सब दे दी, वे बच्चे इन सब चीजो को पाकर बहुत खुश हुए। हम लोग बच्चो से मिलकर चल पडे, कुछ दूर जाने पर पता चला की मेरा गॉगल(चश्मा) कही गिर गया है, मैने नीरज को बोला की आप चलो मै अभी आया। कुछ दूर जाने पर मेरा गॉगल मिल गया, अब सबसे पीछे मै ही था, दर्द के कारण मे आराम आराम से चल रहा था, कुछ देर बाद मै जांगडा के पास आ गया, तकरीबन आधा घंटे बाद एक जगह हम दोनो आगे जा ही रहे थे की नीरज की आवाज आई की इधर से नही, नीचे जा रही पगडंडी से आओ। नीरज ने बताया की वह हम लोगो की वजह से ही यहां पर बैठा था, कुछ देर बाद हम गाडी पर पहुचं गए, समय लगभग दोपहर के साढ़े तीन बज रहे थे, खच्चर वाले को उसके पैसे दे दिए गए, बाईक पर जांगडा व नरेंद्र चले गए, उनसे यमुना ब्रिज पर मिलने को बोल दिया, बाकी हम गाडी में बैठ कर नीचे पंतवाडी की तरफ चल पडे। पंतवाडी में परमार स्वीट पर पहुचें, वहां से पता चला की नरेंदर ने होटल के खाने पीने का हिसाब चुकता कर दिया है, कुछ घंटो मे यमुना ब्रिज पहुचं गए, वहां से नरेंद्र भी गाडी मे बैठ गया ओर जांगडा साहब अपनी बाईक लेकर अपनी राह चले गए, हम लोग मसूरी की तरफ मुड गए, जहां से हम कैम्पटी फॉल से होते हुए, मसूरी गांधी चौक पर पहुचें, पर यहां पर हम रूके नही ओर सीधा रात को तकरीबन साढ़े नौ बजे हरीद्वार पहुंचे, एक होटल पर खाना खाया ओर शांतिकुंज आश्रम में एक बडा कमरा ले लिया, कमरा लेने के बाद मैं ओर नीरज पंकज जी को रेलेवे स्टेशन पर छोडकर वापिस शांतिकुंज आ गए, जहां पर हम रात गुजार कर सुबह सुबह दिल्ली के लिए चल पडे।

यात्रा समाप्त।

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अब कुछ फोटो देखे जाए इस यात्रा के….

सुबहे उठकर देखा तो पानी जमा हुआ था। 
सुबहें की चाय 
ट्रैकिंग चालू 

दूर से हमारा कैम्प दिखते हुए। 
अब रास्ते पर बर्फ दिखने लगी है। 
एक पेड़ दिखा जो अंदर से जला हुआ था। 
नरेंदर आराम करता हुआ। 
मै सचिन त्यागी रास्ते में आराम करता हुआ। 
पहुँच गए बस। 
हे हे हम पहुँच गए। 
सामने झंडी दिखती हुई। 
लो जी पहुंच ही गया 
नाग टिब्बा पॉइंट 
दूसरी तरफ नाग टिब्बा के 

किसी जानवर  के पैर के निशान।
पंकज, सचिन त्यागी ,जांगड़ा व नीरज जाट। 
वापसी देवता कैंप पर आने के बाद ( पहाड़ियों के पीछे है नाग टिब्बा )

टेंट व अन्य सामान पैक करते हुए 
सब सामान पैक हो गया है। 
चलिए वापसी नीचे की ओर। 

                                                                                      पहुँच गए हरिद्वार। 

                                                                    

नाग टिब्बा ट्रेकिंग यात्रा (पतवाड़ी से नाग देवता मन्दिर) 

इस यात्रा को शुरू से पढने के लिए यहां क्लिक करे।

25,Jan,2016, monday

मेरी आंखे सुबहे जल्द ही खुल गई, प्यास लग रही थी इसलिए बाहर होटल वाले से कह कर ओर पानी मंगा लिया, कुछ ही देर बाद सचिन जांगडा व पंकज जी भी ऊठ गए, होटल वाले ने नहाने के लिए गर्म पानी कर दिया था, लेकिन नहाने का मन ना हुआ फिर भी जल्दी जल्दी नहा लिया। क्योकी अगले दो दिन नाहने को नहीं मिलेगा , बारी बारी से पंकज और जांगड़ा भी  फ्रैश हो गए. हम तीनो नीरज के रूम पर पहुचें तो देखा जनाब अभी तक सो रहे थे, हम यह कह कर वहां से आ गए की हम तीनो रात वाले ढाबे (परमार स्वीट्स ) पर नाश्ता करने जा रहे है। नीचे होटल (ढाबे) पर आकर चाय ओर पंराठे बोल दिए, यही से पता चला की नरेश सहगल व उनके साथी ट्रैक पर सुबह ही निकल गए है, चाय नाश्ता करने के बाद हमने होटल वाले से बीस पंराठे पैक कराने को कह दिया क्योकी ऊपर पूरे ट्रैक पर कोई दुकान नही है, जो समान ले जाना होता है, वह नीचे से ही ले जाना होता है। नाश्ता करने के बाद हम तीनो ऊपर होटल की तरफ चल पडे।
जब हम होटल पहुचें तो देखा की नीरज होटल वाले (सुमन सिंह 08449238730 ) से बातचीत कर रहे है, नीरज ने मुझसे पुछा की ऊपर के लिए खच्चर कर लेते है, क्योकी समान ज्यादा है, इसके लिए मैने तुरंत हां कर दी, क्योकी हमारे बैग को छोडकर भी ट्रैकिंग का बहुत समान था, बातों बातों में पता चला की होटल वाला भी ऊपर खच्चर लेकर जाता है, उससे बातचीत की तो उससे तय हुआ की वह प्रति दिन के सात सौ रूपये लेगा। दो दिन के हिसाब से 1400 हुए और एक दिन के तीन कमरो का हुआ 1300 रूपए। कुल मिला कर 2700 रुपए उसके बने। हम उसको देने लगे तोह उसने कहा की ट्रैक से वापसी पर ले लेगा। इतना कह कर वह खच्चर लेने चला गया, हम सब ने अपनी जरूरत का सारा समान अपने अपने बैगो मे रख लिया और बाकी सारा समान कार की डिग्गी में डाल दिया, ओर ट्रैकिंग का सारा समान जैसे स्लिपिंग बैग, टैंट आदि सब खच्चर पर बंधवा दिया, खच्चर वाला यह कहकर चला गया की वह हमको ऊपर सडक पर मिलेगा, जहा से ट्रैक्किंग चालू होती है, वह ऊपर चला गया ओर हम नीचे ढाबे पर आ गए। जब तक सहयात्रियों  ने नाश्ता किया तब तब मैने ओर नरेंद्र ने सारा राशन पैक करा लिया, चाय की पत्ती से लेकर चीनी तक। साथ में ढ़ाबे वाले से एक पतीली ओर ले ली, कुछ टॉफी भी ले ली गयी और आपस में बाट भी ली, एक बात यह भी है की पुरे ट्रैक पर जांगड़ा और नरेंदर की वाइफ की कॉमेडी चलती रही जिसका सभी ने पूरा लुफ्त उठाया। अब हम गाडी व बाईक लेकर ऊपर सडक की तरफ चल पडे, पूरा रोड लगभग कच्चा ही बना है, तकरीबन आधा घंटे के बाद हम ऊपर पहुचें, यहां पर नीरज ने ऊंचाई नापी तो लगभग 1600मीटर दर्शा रही थी, जबकी पंतवाडी की ऊंचाई समुद्र की सतह से 1300मीटर थी, यहां से हमे लगभग 8.5km की पैदल चढाई करनी थी, ओर 3000 मीटर तक पहुचना था। यानी की हमे 8.5km  की दूरी मे 1400मीटर ओर ऊपर जाना था। वैसे आज हमे केवल नाग देवता तक ही जाना था।

गाडी व बाईक रोड पर एक तरफ लगा कर व अपना अपना बैग पीठ टांग कर हम लोग दोपहर के लगभग 11बजे ऊपर की तरफ चल पडे। यहां से गोट विलेज नामक रीजोर्ट की दूरी 2km है, हम सडक से ऊपर जाती से पगडंडी पर हो लिए, गोट विलेज का काम तेज चल रहा था, नीचे से बहुत सा समान गधो ओर खच्चरो पर आ रहा था, जिसके कारण इस रास्ते पर बहुत धुल उड रही थी, फिर हमारे कदमो से से भी धुल उड रही थी, इसलिए मै सबसे थोडी दूरी पर  व पिछे चल रहा था, शुरू मे रास्ता ज्यादा चढाई का है, कुछ चलने के बाद थोडा सा सांस लेने को रूक जाते, पर चलते रहते। थोड़ा ही चले थे की जांगड़ा भाई कहने लगे की ओर नहीं चला जाता में तोह वापिस जा रहा हुँ लेकिन हम लोगो की वजह से गया नहीं और धीरे धीरे चलता रहा, तकरीबन दो किलोमीटर चलने के बाद एक पाईप मे टंकी लगी देखी तो सबने वही पर अपने अपने बैग पटक कर थोडी सांसो को आराम दिया, यहां पर सबने पानी पिया ओर अपनी अपनी बोतलो में भी भर लिया, यही पर से ही खच्चर वाले ने दो कैनो मे पानी भर कर खच्चर पर टांग दिया। नीरज ने बताया की यहां से आगे इतना साफ पानी ओर कही नही मिलने वाला है। यहाँ पर कुछ घर भी बने थे लकिन इसके बाद जंगल चालू हो जाता है, फिर कोई घर रास्ते में नहीं मिलेगा।

पानी भरकर थोड़ा सा ही चले ही थे की भंयकर चढाई का सामना करना पडा, साथ मे रास्ते पर छोटे छोटे पत्थर बिखरे पडे थे, इन  पर फिसलने का डर भी था, थोडी दूर जाकर एक छोटा सा मैदान आया, जहां से रास्ता थोडा सामान्य हो गया, मतलब चढाई कम हो गई, आराम से चलते हुए हम एक छोटे से बुग्याल(घास का मैदान) पर पहुचे। सभी को चलते चलते जोरो से भूख लगने लगी थी, इसलिए यहां पर रूक कर हमने नीचे से लाए पंराठे आचार संग खाए। इस बुग्याल के बाद देवता मंदिर तक सारा रास्ता जंगल का ही है। नीरज ने बताया की यहीं पास में जगंल के अन्दर एक पानी का स्रोत है, जहां पर पीने का पानी है, परांठे खाने के बाद मै, नीरज ओर पंकज जी पानी की तलाश में चल पडे। थोडा चलने के बाद एक जगह एक छोटे से गढ्ढे मे पानी दिखा, ध्यान से देखा तो पानी हल्का हल्का बह रहा था, यह पानी रूका हुआ नही था इसका मतलब हम इसे पी सकते थे, यहां से एक बोतल पानी की भर कर हम ऊपर बुग्याल की तरफ चल पडे। बुग्याल पर जाकर तुरंत ही वहां से आगे चल पडे, अब हम ऊंचे ऊंचे पेडो के बीच बने रास्ते से गुजर रहे थे। रास्ते में दीमक लगे पेड टुटे बिखरे दिखाई दिए, जिस पर पंजो जैसे निशान भी थे, लग रहा था जैसे किसी जानवर ने इस पेड को अपने दांतो व पंजो से तोडा हो, दीमक खाने के लिए। यह देखकर हम आगे बढ चले।
कुछ दूर चले थे की हम लोगो को नरेश व उनके मित्र वापस आते हुए मिले, समय देखा तो तकरीबन शाम के चार बज रहे थे, नरेश ने बताया की वह सुबह चलकर नाग देवता वह वहा से चलकर नाग टिब्बा पहुचे। नाग टिब्बा पर थोडा समय बिताकर अब सीधे उतर रहे है, ओर अंधेरा होने से पहले ही पंतवाडी पहुचं जाएगे। 
नरेश जी से मिलकर हम ऊपर की तरफ चल पडे, अचानक मुझे कुछ याद आया ओर मेनै उन्हे रूकने के लिए बोला, मुझे याद आया की हम राशन तो ले आए पर आग जलाने के लिए माचिस तो साथ लाए ही नही, शायद इनके पास मिल जाए, जब उनसे यह बताया की हमारे पास माचिस नही है तब उनके एक मित्र ने मुझे माचिस दे दी। नरेश जी को एक बार ओर शुक्रिया कर उनसे विदा ली, वैसे नरेंद्र ने बाद में बताया की रास्ते में एक मजदूर से माचिस ले ली थी। 
जंगल वाला रास्ता बहुत सुंदर था, वैसे हमे कोई जानवर नही दिखाई दिया बस किसी पक्षी की आवाज सुनाई देती रहती , वैसे जंगल इतना शांत था की हमे केवल अपने पैरो तले कुचले जाने वाले सुखो पत्तियो की आवाज सुनाई दे रही थी। मै, पंकज व जागंडा भाई सबसे पिछे चल रहे थे, एक जगह हम तीनो थोडी देर सांसो को सामान्य बनाने के लिए रूके, मतलब आराम के लिए रूके, अपनी अपनी बोतलो से पानी पीया, यह जगह जंगल के बीचो बीच गहन शांति वाली थी, यहां पर इतनी शांति थी की हमे अपनी सांसो की आवाज भी बहुत तेज सुनाई दे रही थी। जब हम रूकते तो ठण्ड लगने लगती जब चलते रहते तो ठण्ड नहीं लगती बल्की गर्मी लगती।
यहां से थोडी देर बाद हम चल पडे, हमारे साथियो की आवाज सुनाई नही पड रही थी, मै भी पंकज व जांगडा से आगे हो गया, तकरीबन आधा घंटे बाद मुझे एक कमरा सा दिखलाई पडा, ओर उसके पास एक बडा सा मैदान जो चारो ओर से जंगल से घिरा था, कमरे के पास तीन टैंट लगे थे, जो शायद हम जैसे ट्रैकर ही थे, यह कमरा जंगल विभाग वालो का था, जिसमे दो कमरे बने है जो गंदे थे क्योकी इसमे खच्चर व खच्चरो के मालिक रात गुजारते है। इन कमरो से कुछ दूर हमारे साथी रूके हुए थे ओर सारा समान एक जगह रखा था, वहां पहुचते ही नीरज ने कहा की चलते चलते शरीर गर्म रहता है पसीने भी आते है इसलिए अंदर के कपडे चेंज कर लो नही तो ठंड लग सकती है। सबने इधर उधर जाकर अपने कपडे चेंज कर लिये ओर दिन छिपने से पहले उजाले में ही अपने अपने  टेंट लगा लिए, अब आग जलाने के लिए लकडी लेने जाना था बस, तभी एक पेड दिखलाई दिया जो दीमक के खाने की वजह से खोखला हो चुका था, काफी मसक्कत करने के बाद वह पेड हमने तोड दिया पर ज्यादा भारी होने के कारण हम उसे ऊपर ना ला सके ओर वही उसको तोडने लगे, थोडा सा ही तोड पाए ओर वह पेड रपट कर नीचे जंगल मे गिर गया, हम बहुत हताश हो गए, क्योकी उसके लिए हमने बहुत महनत की थी, में और नीरज नीचे जाकर जंगल से ओर  लकड़ी ले आए, ओर आसपास से भी  हमने बहुत सारी लकडी इक्कठी कर ली। आग जला दी गई, नरेंदर व दोनों महिलायो को चाय बनाने के लिए बोल कर हम तीनो(मै, नीरज व पंकज) एक पहाडी पर बैठ गए, वहां से सूर्यास्त का बेहतरीन नजारा देखने को मिला, हम आपस मे बात कर रहे थे की मुझे नागदेवता मन्दिर के पास पेडो के बीच कुछ हलचल सी दिखाई दी, नीरज ने कैमरे से जूम कर के देखा तो हिमालयन रेड फॉक्स (लोमडी) थी वो भी दो, कुछ देर बाद वह दोनों लोमडी जंगल में चली गयी फिर जंगल से बंदरो की आवाज आने लगी।
हम तीनो बाद मे मन्दिर के पास गए, यह मंदिर नाग देवता को समर्पित है जो यहाँ के देवता है, मंदिर के पास ही एक पानी का कुण्ड है जिसमे पानी था. मंदिर के पास एक नया मंदिर और बना है. कुछ टीन सैड भी गिरे है जिनमे से कुछ टूटे फूटे है। अब कुछ अंधेरा होने लगा था इसलिए हम वहां से ही लौट आए। 

जब टैंट के पास आए तो अंधेरा पूरे क्षेत्र मे फैल चुका था, चाय बनाने के लिए रखी जा चुकी थी, साथ मे रात के लिए खिचडी बननी थी उसके लिए सभी अपने अपने हिसाब से काम कर रहे थे, कोई प्याज तो कोई टमाटर काट रहा था, साथ में हंसी मजाक का दौर भी चल रहा था, जंगल मे मंगल हो रहा था, ऊपर देखा तो आसमान में तारे पूरी चमक के साथ झिलमिला रहे थे, ओर लग रहा था जैसे वो आज धरती के कुछ ज्यादा ही नजदीक
आ गए हो। तभी एक पहाडी कुत्ता हमारे पास आ गया, वह बेहद शांत लग रहा था, हमने उसे बचा परांठा व बिस्कुट दिए। फिर तो वह रात तक हमारे साथ ही रहा।
तकरीबन दो घंटे में हमारी खिचडी बन कर तैयार हुए, खिचडी के बनने मे लगे समय को देखकर बीरबल की खिचडी वाली कहानी याद आ गई, एक बार फिर चाय बना डाली, खिचडी खाने मे स्वादिष्ठ बनी थी, मैने तो दो बार खिचडी खाने के लिए ली। खिचड़ी खाने के बाद भी हम लोग आग के पास बैठे रहे. चारो तरफ घुप अँधेरा छाया हुआ था, में सोच रहा था की हम इतनी दूर केवल इस सुनसान काली रात व इस सन्नाटे को महसुस करने के आये है। यह रात आज कितनी भी लम्बी क्यों ना लगे पर बाद में यही रात हमारे जेहन बस जाएगी। इस ट्रैक पर किताबों की पढ़ी बातें वास्तविक रूप से अनुभव की जैसे एक इंसान को अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए हर कठनाई का सामना खुद करना होता है,लोग आपके साथ तोह रहगे लकिन राह पर खुद ही चलना होगा। यहाँ हम एक अंजान जगह है हर कोई काम कर रहा है सब मिलजूल कर काम कर रहे है यही संगठन है और जहां संगठन है वहां हर काम आसानी से हो जाता है।
काफी देर बाद हम  सभी अपने अपने टेंटो में जाने लगे। शायद रात के दस बज रहे थे, ठंड भी लग रही थी, नीरज ने अपने बैग से एक मौसम नापने का यंत्र निकाला तो वह माइंस मे टैमप्रेचर दिखा रहा था, रात को उसे बाहर पत्थर पर ही रख दिया, और फिर सब अपने अपने टैंट में आकर लेट गए, ओर अपने अपने स्लिपिंग बैग में घुस गए,  ठंड के कारण मेरे पैर सुन्न हो रहे थे फिर मैने अपने बैग से एक गरम चादर निकाल कर अपने पैरो पर लपेट ली, उसके बाद तो थोडी देर बाद मुझे पता ही नही चला की मै कब सो गया।

यात्रा अभी जारी है….
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कुछ फोटो देखे जाएं इस यात्रा के……

 पंतवारी गाँव का मन्दिर 


गेट के अंदर जहां हम रात रुके थे वह होटल दिख रहा हे। 



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परमार होटल के पास जांगड़ा व पंकज जी। 


में (सचिन त्यागी ) व सचिन जांगड़ा 


ट्रैक्किंग चालू 


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 थोड़ा सांस ले लू भाई 


गोट विलेज बन रहा है पीछे लेबर काम कर रही है। 


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पानी की टंकी आ गयी जितना पानी भरना है भर लो। 


छोटा सा बुग्याल आ गया जहा हमने परांठे खाए थे। 


बुग्याल सर्दी की वजह से सूखे है। 


जंगल का रास्ता चालू 



नरेश सहगल व उनके मित्र मिले। 


नीरज जाट आराम से खड़े हुए सांसो को सामान्य बनाते हुऐ। 
वन विभाग के कमरे दीखते हुए। 


टेंट लग चूके है। 


सूर्यास्त का बेहतरीन नजारा। 



नागदेवता का मंदिर 


पानी का कुण्ड(देवता  मंदिर )


नाग देवता मंदिर 


हमारा कैंप रात में 


चाय 


हंसी मज़ाक के वह पल। 



खिचड़ी बन गयी। 
गुड नाईट